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अण्वात्मक कललरस के विधान पर भी उलट कर पड़ता है और उनके द्वारा संयोयित संतति मे देखा जाता है।

इस विभेद के संबंध मे एक बात और है। यद्यपि गर्भाधान के समय दो आत्माओ का जो संमिश्रण होता है उसमें दोनो घटको के अनुरागात्मक संयोग द्वारा केवल जनक-जननी की आत्माओ की निहित शक्तियो की ही संप्राप्ति अधिकतर शिशु को होती है पर ऐसा भी होता है कि और ऊपर की पीढ़ियो के पूर्वजो के मानसिक संस्कार भी साथ ही उसे प्राप्त हो जाते है। कुलपरंपरासंबंधी प्राकृतिक नियम आत्मा पर भी ठीक वैसे ही घटते हैं जैसे अंगविधान पर। छत्रक आदि समुद्र के उद्भिदाकार कृमियो मे एक एक पीढ़ी का अंतर दे कर पूर्वजो की विशेषताएँ प्रकट होती हैं। एक कृमि से जो दूसरा कृमि उत्पन्न होगा उसमे पहले का लक्षण न होगा, उस दूसरे से जो तीसरा उत्पन्न होगा उसमे पहले के लक्षण मिलेगे, फिर उस तीसरे के लक्षण पाँचवी पीढ़ी मे मिलेगे, पाँचवी के सातवी मे, इसी प्रकार यह क्रम बराबर चुला चलेगा। इसी नियम के अनुसार दूसरी पीढ़ी के लक्षण चौथी मे, चौथी के छठी मे, छठी के आठवी मे मिलेगे। मनुष्य आदि उन्नत जीवो मे यद्यपि इस प्रकार के अंतर का नियम नहीं है पर उनमे भी कभी कभी एक पीढ़ी का अंतर दे कर लक्षण प्रकट होते है, जिसका कारण वंशपरंपरा का निहित नियम है। बड़े बड़े लोगो मे प्रायः ऐसा देखा जाता है कि उनके गुण और स्वभाव उनके पितामहों से मिलते है।