पृष्ठ:विश्व प्रपंच.pdf/२८३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( १२० )


रूपांतर या कायाकल्प होता है और इनका अंगविधान स्थल- चारी जीवन के अनुकूल संघटित होता है तब इनका मत्स्याकार शरीर कूदनेवाले चतुष्पद मेढक के रूप मे परिवर्तित हो जाता है। फिर तो गलफड़ो द्वारा पानी में सॉस लेने के बेदले ये फेफड़ो के द्वारा स्थल पर सॉस लेने लगते है, इनकी इंद्रियों और अंतःकरण अर्थात् सारा विज्ञानमय कोश अधिक उन्नत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। यदि हम छुछमछली के आत्मस्फुरणक्रम को आदि से अंत तक ध्यानपूर्वक देखे तो पता लगे कि जीवनोत्पत्ति के सामान्य नियम किस प्रकार आत्मविकाश के क्रम पर भी ठीक ठीक घटते हैं। बात यह है कि छुछमछली की वृद्धि का वाह्य संसार की उस बदलने वाली परिस्थिति से सीधा लगाव होता है जिसके अनुकूल उसकी संवेदना और गति मे परिवर्तन उपस्थित होता है। तैरनेवाली छुछमछली का ढॉचा ही नही रहनसहन भी मछली ही की सी होती है, मेढक के लक्षण उसमे परिवर्तन के उपरांत आते है।

मनुष्य के भ्रण मे ऐसा नही होता। झिल्लियो के कोश में बंद रहने के कारण वह वाह्य संसार के प्रभावो से अलग रहता है और वाह्य परिस्थति के अनुरूप प्रातक्रिया उसमे स्वच्छंद रूप से नही होने पाती। जलपूर्ण कोश के भीतर रक्षापूर्वक बंद रहने के कारण मनुष्य आदि के भ्रूण मे आदिम जीवों के लक्षणो का उत्तरोत्तर विकाश पूर्णरूप से नहीं होने पाता। अत्यंत संक्षिप्त उद्धरणी के द्वारा ही उसे नए जीव का स्वरूप प्राप्त होने का सुगम साधन प्राप्त हो