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जल के उद्भिदाकार कृमियो की यदि हम परीक्षा करें तो साफ दिखाई पड़ेगा कि किस प्रकार तंतुजालगत आत्मा से उन्नतिक्रम द्वारा संवेदनसूत्रगत आत्मा का विकाश होता है। मूँगा और छत्रक इसी प्रकार के कृमि है। एक प्रकार के कृमियो का समूहपिंड या छत्ता समुद्र और झीलो मे चट्टानो आदि पर जमा मिलता है जो देखने में खड़े पौधे की तरह जान पड़ता है। इन्हे खंडबीज कहते है। छत्तेके प्रधान कांड में से जगह जगह पर छोटी छोटी शाखाएँ निकली होती है जो सिरे पर चौड़ी होकर गिलास के आकार की होती है। इसी गिलास के भीतर असली कृमि बंद रहते हैं, केवल उनकी सूत की तरह की भुजाएँ निकली होती है। कुछ शाखाओं के भीतर विशेष प्रकार के कुड्मल होते हैं। जब कोई कुड्मल अपनी पूरी बाढ़ को पहुँच जाता है तब एक स्वतंत्र जीव होकर कांड से अलग हो जाता है और चर जंतु के रूप मे इधर उधर तैरने लगता है। इसी को छत्रककृमि कहते हैं क्योकि यह छाते के आकार का होता है। जिस अचर पिड से इसकी उत्पत्ति होती है उससे यह बिलकुल भिन्न होता है। अचर खंडबीज कृमियो मे संवेदनसूत्र और इन्द्रियाँ नही होतीं, उनमें संवेदन शरीरव्यापी होता है। पर छत्रक में संवेदनग्रंथियो और विशेष विशेष इन्द्रियों का कुछ विधान होता है। इसके प्रजनन का विधान भी ध्यान देने योग्य है। स्थावर खंडवीज कृमियो मे


  • इनमें यह विशेषता होती है कि इनके शरीर के यदि कई खड कर डालें तो प्रत्येक खड बढ कर कृमि के रूप मे हो जायगा।