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स्त्री पुं० विधान नही होता. कुड्मल-विधान होता है जैसा कि ऊपर दिखाया जा चुका है। पर उनसे जो छत्रककृमि उत्पन्न होते हैं उनमे स्त्री पु० अलग अलग होते हैं। पुं० के शुक्रकीटाणु जल मे छूट पड़ते हैं और जल के प्रवाह द्वारा मादा के गर्भाशय मे जाकर गर्भकीटाणु को गर्भित करते हैं। ये गर्भकीटाणु शीघ्र डिंभकीट के रूप मे प्रवर्द्धित होकर कुछ दिनो तक जल मे तैरते फिरते हैं पीछे किसी पौधे, लकड़ी के तख्ते आदि पर जम जाते है और धीरे धीरे बढ़ कर खंडबीज कृमि के रूप मे हो जाते हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है इसी खडबीज कृमि से फिर छत्रककृमि की उत्पत्ति होती है। सारांश यह कि खंडबीज कृमि से छत्रक कृमि की उत्पत्ति होती है और छत्रककृमि से खंडबीज कृमि की। प्रजनन के इस विधान को इतरेतरजन्म * या योन्यंतर विधान कहते हैं। इससे हम आत्मा की वर्गपरपराक्रम से वृद्धि अपनी ऑखो के सामने देख सकते हैं। समूहपिंड बना कर रहनेवाले उद्भिदाकार कृमियों मे हमे दोहरी आत्मा दिखाई पड़ती है। एक तो समूहपिंड के कृमियों की पृथक पृथक् आत्मा, दूसरी सारे समूहपिड की सामान्य आत्मसमष्टि।

(४) संवेदसूत्रगत आत्मा या सूत्रात्मा---वर्गपरं


  • ऋग्वेद में लिखा है कि "अदितिर्दक्षो अजायत, दक्षाददितिपरि अर्थात् अदिति से दक्ष उत्पन्न हुए और दक्ष से अदिति। इसका यास्काचार्य ने इस प्रकार समाधान किया है "इतरेतर जन्मानो भवन्तीतरेतर प्रकृतयः"।।