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परानुगत आत्मविधान की यह चतुर्थावस्था है। मनुष्य आदि समुन्नत जीवों के मनोव्यापार एक विशेष यंत्र या करण के द्वारा होते हैं। इसे करण के तीन मुख्य विभाग होते हैं--(क) वाह्यकरण या इन्द्रियां जिनसे संवेदन होता है, ( ख ) पेशियाँ जिनसे गति या संचालन होता है और ( ग ) संवेदनसूत्र जो इन दोनो के बीच मस्तिष्क रूपी प्रधान करण के द्वारा संबंध स्थापित करते हैं। मनोव्यापारो का साधन करने वाले इस भीतरी यंत्र की उपमा तारयंत्र से दी जा सकती हैं। संवेदनसूत्र तार है, इन्द्रियां छोटे स्टेशन है और मस्तिष्क सदर स्टेशन है। गतिवाहक सूत्र संकल्परूपी आदेश को सूत्रकेद्र या मस्तिष्क से पेशियो तक पहुँचाते है जिनके आकुंचन से अंगो में गति होती है। संवेदनवाहक सूत्र इंद्रियो के द्वारा प्राप्त संवेदनो को अंतर्मुख गति से मस्तिष्क या अंतःकरण मे पहुँचाते है। मस्तिष्क या अंतःकरण रूपी मनोव्यापारकेद्र ग्रंथिमय होता है। इन सूत्रग्रंथियो के घटक सजीव द्रव्य के सब से समुन्नत अंश हैं। इनके द्वारा इन्द्रियो और पेशियो के बीच व्यापारसंबंध तो चलता ही है, इसके अतिरिक्त भावग्रहण, बोध और विवेचन आदि अनेक प्रकार के मनोव्यापार होते हैं।

अत्यंत क्षुद्र जीवो को छोड़ शेष सब जंतुओ मे मनोव्यापार का एक अलग करण होता है। छत्रककृमियो में मुँह के


• क्षुद्र कोटि के जीवो में साधारण ततुओं से अलग संवेदन सूत्र नहीं होते।