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आदि अनेक प्रकार के मनोव्यापार होते है। संवेदन सूत्रो के अतिरिक्त गति-सूत्र भी मस्तिष्क तक गए होते है जिनके द्वारा क्रिया की प्रेरणा होती है।

अंतःकरण का केद्र मस्तिष्क है। रीढ़वाले जंतुओ मे टसकी परिस्थिति, रचना और योजना एक विशेष प्रकार की होती है। प्रत्येक जंतु के मस्तिष्क से भेजे की एक नली रीढ़ मे होती हुई पीठ के बीचोबीच नीचे की ओर गई होती है। इस नली की एक एक गुरिया से दोनो ओर संवेदनसूत्र और गतिसूत्र शरीर के भिन्न भिन्न भागो मे जाते है। भेजे की इस नली की उत्पत्ति मेरूदंड जीवो के भ्रूण मे एक ही ढंग से होता है। पीठ की त्वचा के बीचोबीच पहले भेजे की एक लकीर या नाली सी दिखाई पड़ती है। पीछे इस लकीर के दोनो किनारे कुछ कुछ उठने लगते हैं और धीरे धीरे मिल जाते है जिससे यह लकीर भेजे की एक पोली नली के आकार की हो जाती है।

भेजे की यह नली मेरुदंड जीवो की सब से बड़ी विशेषता है। इसी से काल पा कर भिन्न भिन्न करण उत्पन्न होते है जिनसे अनेक प्रकार के मनोव्यापार (ज्ञान, अनुभव, प्रेरणा आदि) होते हैं। मनुष्य मे यह नली या मेरुरज्जु अत्यंत पूर्ण अवस्था को प्राप्त होती है। इसकी गुरियो के दोनो ओर बहुत से सूत्र शरीर के भिन्न भिन्न भागों मे जाते हैं जिनके द्वारा ज्ञानेद्रियो का अनुभव और कर्मेंद्रियो का संचालन होता है। करोड़ो वर्षों मे अनेक मध्यवर्ती जंतुओ की आत्माओ से उन्नति करते करते मनुष्य की समुन्नत आत्मा का प्रादुर्भाव हुआ है। सृष्टि के भिन्न भिन्न कल्पो मे जिन जिन अंत:करण