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ही क्रिया का निरीक्षण, अपनी ही अवस्था का बोध करता है। वहिर्मुख चेतना के द्वारा अंत:करण को वाह्य जगत् का बोध होता है। हमारी अधिकांश चेतना वाह्यजगत्संबंधी होती है। अंतर्मुख चेतना का क्षेत्र संकुचित होता है। उसमें हमारे इंद्रियानुभव, संस्कार, और संकल्प प्रतिबिबित होते हैं।

बहुत से तत्त्वज्ञो की धारणा है कि 'चेतना' और 'मनोव्यापार' परस्पर पर्याय शब्द है अर्थात् जितने मनोव्यापार होते हैं सब चेतन होते है। पर यह धारणा ठीक नही। जैसा मैं पहले दिखा चुका हूँ अधिकतर अंत:क्रियाएँ या मनोव्यापार ऐसे होते हैं जिनकी हमे कुछ भी खबर नही रहती। हमारी इंद्रियों के साथ विषय का संपर्क होता है, अंतःसंस्कार अकित होकर पेशियो मे गति उत्पन्न करते हैं पर हम कुछ भी नही जानते। चेतन अंतःसंस्कार जिनके द्वारा ज्ञानकृत व्यापार होते है और अचेतन अंतःसंस्कार जिनके द्वारा अज्ञानकृत व्यापार होते है, दोनों अंतःकरण या मन ही के व्यापार है।

चेतना का परिज्ञान हमे चेतना ही के द्वारा हो सकता है। उसकी वैज्ञानिक परीक्षा मे यही बड़ी भारी अडचन है। परीक्षक भी वही, परीक्ष्य भी वही। द्रष्टा अपना ही प्रतिबिंब अपनी अंत:प्रकृति मे डाल कर निरीक्षण मे प्रवृत्त होता है। अतः हमे दूसरो की चेतना का परीक्षात्मक बोध पूरा पूरा कभी नही हो सकता। हमे उनकी चेतना का अपनी चेतना से मिलान करते हुए चलना पड़ता है। यदि यह मिलान सामान्य मस्तिष्क के मनुष्यो ही तक रक्खा जाय तब तो हम कुछ थोड़े बहुत सिद्धांत उनकी चेतना के संबंध मे निश्चय