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यह सब गड़बड़ चेतना का लक्षण निर्दिष्ट न करने के कारण होता है। मेरे मत मे तो चेतना मनुष्य आदि उन्नत प्राणियों मनोव्यापारों या अंतःक्रियाओं का एक अंश मात्र है, अधिकतर अंतःक्रियाएँ ( मनोव्यापार ) अचेतन होती हैं अर्थात् वे होती हैं पर हमे उनकी खबर नही होती।

चेतना की उत्पत्ति और लक्षण के संबंध मे चाहे जितने भतभेद हों पर उसके विषय मे दो सिद्धांत मुख्य हैं---एक पनीतवाद दूसरा शरीरधर्मवाद। अतीतवाद चेतना को शरीर या भूतो से अतीत वस्तु (आत्मा) का धर्म मानता है और शरीरधर्मवाद शरीर ही का धर्म मानता है। मै इसी दूसरे सिद्धांत को सत्य मानता हूँ। मै चेतना को शरीर ही का एक धर्म मानता हूँ जो भौतिक और रासायनिक नियमों के अधीन है, उन से परे नहीं। मै उसे संवदनसूत्र ही की एक विशेषता मानता हूँ जो उनके केद्रीभूत होने पर उत्पन्न होती है। संवेदनसूत्रो का केद्ररूप अवयव ( अंत करण ) और उन्नतिक्रम द्वारा पूर्णताप्राप्त ज्ञानेन्द्रिय-विधान विशेष करके जरायुज जंतुओ ही मे होता है। बनमानुस, कुत्ते,


लोग समझते थे कि उनका और विभाग नहीं हो सकता। पर कुछ नए मूल द्रव्य मिले जिनके परमाणु और भी सूक्ष्म अणुओं के योग से बने पाए गए जिन्हें विद्युदणु (Election) कहते है। पहले लोग जल, वायु आदि को मूल भूत समझते थे, पर वे कई मूल भूतो के योग से सघटित द्रव्य है। उनके सयोजक मूलद्रव्य रासायनिक विश्लेषण द्वारा अलग अलग किए जा सकते है।