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स्तन्य जीवों की चेतना परिणामी है---उसमे भीतरी ( जैसे रक्त का चढ़ाव उतार ) और बाहरी कारणो (जैसे आघात, उत्तेजन ) से फेरफार हो सकता है। बहुत सी बीमारियाँ ऐसी होता है जिनमें अंतःसंस्कारो ( अंतःकरण मे उपस्थित प्रतिबिबो ) के उलटफेर से मनुष्य की चेतना दो चार दिन एक प्रकार की रहती है, दो चार दिन दूसरे प्रकार की—दो चार दिन वह अपने को कुछ और समझता है, दो चार दिन कुछ और।

प्रायः सब लोग देखते है कि तुरंत के उत्पन्न बच्चे मे चेतना नही होती * । प्रेयर नामक शरीरविज्ञानी ने दिखलाया है कि चेतना बच्चे मे उस समय स्फुरित होती है जब वह बोलना आरंभ करता है। बहुत दिनों तक वह अपने लिए किसी सर्वनाम आदि शब्द का प्रयोग नही करता। जिस घड़ी वह "मै" शब्द का उच्चारण करता है और उसमे अहंकार वृत्ति स्पष्ट होती है उसी घड़ी से उसमे आत्मचेतना का आरंभ समझना चाहिए। दस वर्ष की अवस्था तक उसके ज्ञान की वृद्धि बहुत जल्दी जल्दी होती है; उसके पीछे वृद्धि की गति कुछ मद होती है। ज्ञान-वृद्धि की यह गति चेतना और उसके करण मस्तिष्क की वृद्धि के अनुसार होती है। पूर्णवयस्क होते ही मनुष्य की चेतना पूर्णता को नही पहुँत जाती; वह ससार के अनेक रूप के व्यवहारो द्वारा, समाज के संसर्ग


  • छादोग्योपनिषद् में बच्चों में मन का अभाव माना गया है। "यथा बाला अमनस: प्राणन्तः प्राणेन, वदन्तो वाचा, पश्यन्श्चक्षुषा, श्रृण्वन्तः श्रोत्रेणैवामिति"।

प्रपाठक ५ खड १