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समझिए ) पीछे उनकी संतति मे जल में रहने के उपयुक्त अवयवो का विधान होगया—--जैसे, उनके अगले पैर मछली के डैनो के रूप के होगए, यद्यपि उनमें हड्डियाँ वे ही बनी रही जो घोड़े, गदहे आदि के अग़ले पैरो मे होती है। कई प्रकार के हेव्लो में पिछली टॉगो का चिह्न अब तक मिलता है। जीवो के ढॉचो मे बहुत कुछ परिवर्तन तो अवयवो के न्यूनाधिक व्यवहार के कारण होता है। अवस्था बदलने पर कुछ अवयवों का व्यवहार अधिक केरना पड़ता है, कुछ का कम। मनुष्य को ही लीजिए जिसकी उत्पत्ति बनमानुसो से मिलते जुलते किसी जंतु से धीरे धीरे हुई है। ज्यो ज्यो दो पैरो के बल खड़े होने और चलने की वृत्ति उसमे अधिक होती गई त्यो त्यो उसके दोनो पैर चिपटे, चोड़े और दृढ़ होते गए और एड़ी पीछे की ओर कुछ बढ़ गई। उसी पूर्वज जतु से बनमानुसो की भी उत्पत्ति हुई है। वनमानुस से मनुष्य के शरीर के ढांँचे में तो उतना अधिक भेद नही पड़ा, पर अंत करण या मस्तिष्क की वृद्धि बहुत अधिक हुई।

दार्शनिक अनुमान के रूप में तो विकाशसिद्धात बहुत प्राचीन काल से पूर्व और पश्चिम दोनों ओर चला आ रहा है। एक अव्यक्त मूल प्रकृति से किस प्रकार क्रमशः जगत् का विकाश हुआ है सांख्य में इसका प्रतिपादन किया गया है। यूनानी तत्त्ववेत्ता भीं जगत् का विकाश इसी प्रकार मानते थे। पर वैज्ञानिक निश्चय और दार्शनिक अनुमान मे बड़ा भद होता है। दार्शनिक संकेत मात्र देते है और वैज्ञानिक ब्योरों की छानबीन करते है। जिस समय डारविन ने प्राणियो