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जाना एक प्रसिद्ध बात है। मनु ने भी उद्भिजों की गिनती जीवों या प्राणियों में की है और उनमें अंतस्संज्ञा मानी है, यथा---तमसा बहुरूपेण वेष्ठितः कर्महेतुना। अंतस्संज्ञा भवन्त्येते सुख दु ख समन्विता‌।। अध्यापक जगदीशचंद्र बसु ने तो पौधो के सुख दुःख आदि के संवेदन को अर्थात् उनके संवदनसूत्रो में उत्पन्न क्षोभ को अपने सूक्ष्म और अद्भुत यंत्रो द्वारा प्रत्यक्ष दिखा दिया है। यहीं तक नहीं उन्होने अपनी खोज और आगे बढ़ाई है। उन्होंने धातुओं में भी संवेदन के क्षोभ का आभास दे कर निर्जीव और सजीव के बीच समझे जाने वाले भेदभाव को बहुत कुछ मिटा दिया है।अध्यापक शेफर ने भी अपने व्याख्यान में कहा था कि "आजकल के नए नए अनुसंधानो से यह सूचित हुआ है कि निर्जीव और सजीव में जितना भेद प्रतीत होता है वास्तव में उतना भेद नहीं है और इन दोनों का एक सामान्य लक्षण स्थापित होने की संभावना बढ़ गई है।"

अत्यंत क्षुद्र कोटि के जंतुओ और पौधो में तो प्राय सब बातो मे समानता पाई जाती है। पर ज्या ज्यों हम उन्नत पौधो की ओर आते हैं त्यों त्यो उनमे जंतुओ से विभिन्नता अधिक मिलती जाती है। इससे स्पष्ट है कि एक ही सजीव द्रव्य वा कललरस से जंतुओं और उद्भिदो दोनों की उत्पत्ति हुई पर आरंभ ही से उद्भिजों की शाखा अलग हो गई और उनकी विकाशपरंपरा अलग चली। यह भेद पौधो मे उस हरित धातु के कारण पड़ा जो उनके कललरस में मिली रहती है और जिसके कारण पेड़ पौधे का रंग हरा दिखाई पड़ता