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मे पाए जाते हैं। उनमे स्त्री पुं० भेद नहीं होता, उनकी वृद्धि बीज से नही होती विभाग द्वारा होती है। अणुरूप एकघटक पौधे छोटे बड़े कई प्रकार के होते हैं। इन अणूद्भिदो के पहले पहल परस्पर मिल कर एक शरीर बनाने से अत्यंत क्षुद्र कोटि के बिना फूलवाले पौधे हुए, जैसे, सेवार, काई, भुकड़ी, खुमी इत्यादि जिनमें खुले हुए अंकुरविंदु उत्पन्न होते हैं। इन खुले हुए अंकुरबिंदु वाले पौधों से फर्न आदि आवरणयुक्त अंकुरविदुवाले पौधे हुए। इन अकुराविदुवाले पौधो की वृद्धि गर्भकेसर और परागकेसर द्वारा नही होती, ये निष्पुष्प पौधे हैं। इनमे अंकुरविंदु निकलते है जिनसे अंकुरित होकर नए पौधे उत्पन्न होते है। पर कुछ गूढलिग निष्पुष्प पौधे ऐसे भी होते हैं जिनमें यद्यपि स्त्री पु० अवयव ( गर्भकेसर परागकेसर ) अलग अलग नहीं होते पर जंतुओं के शुक्रकीटाणु और रजःकीटाणु के समान स्त्री पुं० घटक अलग अलग होते है। अंकुरविंदुवाले पौधों से क्रमशः फूलवाले अर्थात् स्त्री पुं० अवयववाले पौधे हुए जिनमे गर्भाधान गर्भकेसर के बीच परागकेसर के पराग के पड़ने से होता है। गर्भकेसर और परागकेसर ही वास्तव में पुष्प है, रंगीन दल या पखड़ी नही। अत्यंत निम्न श्रेणी के फूलवाले पौधा मे पॅखड़ियाँ नहीं होतीं। फूलवाले पौधो मे पहले देवदार आदि खुले बीज के पौधे हुए फिर उनसे आवरणयुक्त बीजवाले तृण, लता, गुल्म, वृक्ष इत्यादि हुए।

इसी प्रकार जंतुओ मे सब से मूल जंतु अणुरूप ही हुए। अणुजीव अब भी समुद्र या तालो में पाए जाते है और अत्यंत