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में मोनरा और अमीबा के समान पूरा विभाग नही होता है। एक अणुजीव का शरीर जब दो भागों में विभक्त होने लगता है तब मोनरा या अमीबा के समान दोनो भाग अलग अलग नही हो जाते, कललरस के एक सूत्र द्वारा एक दूसरे से लगे रहते हैं। फिर वे दोनो भाग अपनी पूरी बाढ़ पर पहुँचने पर उसी प्रकार दो दो भागो मे विभक्त हो जाते हैं। इसी क्रम से एक जीव से अनेक जीव हो जाते हैं जो एक दूसरे से लगे रहते हैं। इस प्रकार के समूहचक्र के कीटाणु सब एक ढाँचे के होते हैं और प्राय: अलग अलग कोशो में रहते हैं।

समूहचक्र या छत्ते की योजना के अतिरिक्त एक और भी घनिष्ट और गूढ़तर योजना होती है जिससे एक शरीर या समवायपिंड की उत्पत्ति होती है। इसमे बहुत से अणुजीव-रूप घटक मिल कर एक शरीर या जीव हो जाते हैं। अणु जीवो को छोड़ और नव प्राणियों के शरीर बहुत से घटको की ऐसी ही गूढ़ योजना से बने हैं। बड़े से बड़े जीवो का शरीर वास्तव में घटको या अणुजीवों की एक ऐसी सुव्यवस्थित बस्ती है जिसमें एक प्रकार की एकता आ गई है। शरीर संघटित करने में घटकों की जो योजना होती है उसमे सब घटक मिल कर एक तंतुपटल के रूप मे हो जाते है और भिन्न भिन्न भागों में कार्य्यानुसार भिन्न भिन्न आकृतियाँ धारण करते है। जंतुओं की पेशियाँ, हड्डियाँ, नसे, शिराएँ, संवेदन-सूत्र इत्यादि सब अणुजीवरूप घटको की योजना से संघटित हैं।

आरंभ में अणुजीवरुप घटक मिल कर झिल्ली के रूप में