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इनमे संवेदनसूत्र और इंद्रियाँ आदि नहीं होती, संवेदन शरीरभर में होता है। पर कुछ शाखाओ के सिरो पर कुड्मलो का गुच्छा सा होता है। जब कुड्मल अपनी पूरी बाढ़ को पहुँच जाता है तब एक स्वतंत्र जीव हो कर कांड से अलग हो जाता है और चर जंतु के रूप में इधर उधर तैरने लगता है। इसी को छत्रक कृमि कहते है। यह खुमी ( छत्राक ) के छाते के आकार का होता है और इसके चारो ओर चाबुक के आकार की लंबी लंबी भुजाएँ निकली होती है। इसके पेटे ( नतोदर भाग ) के बीचोबीच एक चोगा सा निकला होता है जिसके सिरे पर मुंँह होता है। इस चोगे की जड़ से कई नलियाँ छाते की तीलियों की तरह निकल कर उस नली से मिली होती हैं जो मँडरे पर मंडलाकार होता है। मुहँ के भीतर जो भोजन जाता है वह चोगे के भीतर पच कर नलियो के द्वारा सारे शरीर मे फैल कर पोषण करता है। मँडरे पर से जो भुजाएँ निकली होती हैं उनमें से आठ ऐसी होती है जिनके मूल मे एक एक सूक्ष्म गुठली सी होती है जिसे हम संवेदनग्रंथि कह सकते है। इन इंद्रियो या अवयवो से दिशा का ज्ञान होता है। सारांश यह कि छत्रक कृमि अपने जनक खडबीज कृमि से बहुत अधिक उन्नत होता है। इसमें नेत्रविदु के भी आभास होते हैं, संवेदन-ग्रंथियो का भी विधान होता है। खडवीज कृमि मे स्त्री पुं० विधान नहीं होता, कुड्मल विधान होता है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है। पर उसी से उत्पन्न छत्रक कृमि मे स्त्री पुं० अलग अलग होते है। नर के शुक्रकीटाणु जल में छूट पड़ते हैं और जल के प्रवाह द्वारा