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है। शरीर के पिछले छोर पर एक मलवाहक छिद्र होता है। मुख के भीतर थोड़ी दूर तक कंठनाल होती है जो आंतो से जा कर मिली होती है। आंते इसकी अनेक शाखाओं में विभक्त होती है जिनमे काले रंग का रस या पित्त भरा होता है। यह पित्तरस उसी जंतु के यकृत का होता है जिसके भीतर यह कीड़ा पलता है। उसी के पित्त और उसमे मिले हुए द्रव्य से इस कीड़े का पोषण होता है। अंत्रविधान दुहनी और बाई दोनो ओर का अलग अलग होता है। आंतो से मिला हुआ कोई गुदद्वार नहीं होता, मुख ही एक द्वार होता है। आंतो के अतिरिक्त जलवाहक नलियो का पूरा जाल होता है। सब से बढ़ कर बात तो यह कि संवेदनसूत्रो का विधान होता है। कंठनाल के पास भेजे का छल्ला सा होता है जिसे हम मस्तिष्क का सादा रूप कह सकते हैं। इसी छल्ले से संवेदनसुन्न पीछे की और गए रहते हैं जिनमें दो सूत्र प्रधान है जो दहने और बाएं दोनो ओर होते है। देखने सुनने आदि के लिये अलग अलग इद्रियां नहीं होती।

अब इसकी प्रजनन-प्रणाली पर भी थोड़ा ध्यान दीजिए। स्त्री पुं० जननेद्रियाँ एक ही कीड़े में होती है। पुं० जननेद्रिय मे अडकोश-नलिकाएँ, शुक्रवाहिनी नलियाँ और शिश्न और स्त्री जननेद्रिय मे डिभकोश, गर्भनाली, योनिमुख, अंडपोषक रस की ग्रंथियाँ और नलियाँ होती हैं। शुक्रकीटाणु द्वारा गर्भित होने पर गर्भाड पोषक रस से घिर जाता है और फिर एक छिलके के भीतर बंद हो जाता है। बढ़ चुकने पर यह अंडा अँतड़ियों में होता हुआ बाहर निकल जाता है और कुछ दिनों मे