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बहुत सादा होता है। अष्टपद को छोड और किसीके शरीर के भीतर किसी प्रकार का ढाँचा ( जैसा कि रीढ़वाले जंतुओं का अस्थिपंजर होता है ) नहीं होता । पर उनमे शरीर के ऊपर एक कड़े आवरण की विशेषता होती है जो जल में मिले हुए चूने आदि द्रव्यों के संग्रह से बनता है।

बिना रीढ़वाले जंतुओ से रीढवाले जंतुओं में किन किन बातो की विशेषता होती है यह देख लेना चाहिए। पहली बखत तो यह है कि बिना रीढ़वाले जतुओं में पाचनक्रिया, रक्तसंचार और सवेदनकेद्र तीनो के लिये एक ही घट होता है तथा शरीर को धारण करनेवाला ढाँचा जो कुछ होता है ऊपर ही होता है। यह ढाँचा प्रायः आवरण के रूप मे होता है और कड़े पड़े हुए चमड़े के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। पर रीढ़वाले जंतुओं मे दो अलग अलग घट होते हैं। छोटे वा कपालघट में विज्ञानमय कोश का केद्र ( अर्थात् मस्तिष्क और मेरुरज्जु ) रहता है और मध्यघट मे पाचन और रक्तसंचार के करण ( यकृत, ऑत और हृदय ) होते हैं तथा शरीर को धारण करनेवाला ढाँचा कड़े अस्थिपजर के रूप मे भीतर होता है। इस ढाँचे का सब से विलक्षण भाग है रीढ़ या मेरुदंड। रीढ़ हड़ी की गुरियो की बनी होती हैं जो लचीले सूत्रदंड ( मेरुदंड के पूर्वरूप ) के अवशिष्ट से परस्पर जुड़ी रहती है। बनावट की इस विशेषता के कारण सारी रीढ़ आवश्यकतानुसार लच और मुड़ सकती है जिससे रीढ़वाले जंतुओ को चलने, फिरने, उछलने, कूदने में बड़ी आसानी होती है। मछलियो का झपटना, मेढको का कूदना,