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इसे रीढ़ के स्थान पर एक सूत्रदंड होता है ज़िसके ऊपर यहाँ से वहाँ तक एक संवेदनसूत्र होता है जो मुहँ के पास जा कर कुछ निकला सा होता है। ऊपर थैली के आकार के जिस समुद्रजन्तु का उल्लेख हो चुका है उसकी सवेदनग्रन्थि यदि लंबी कर दी जाय तो इसके और उसके संवेदनविधान बिलकुल एक से हो जायँ। इससे सिद्ध होता है कि दोनो एक ही पूर्वज जन्तु से निकले है।

अब हम मछलियो को लेते है जो रीढ़वाले जन्तुओ के सब मे सादे ढॉचे की समझी जाती है। इनमे जो आदिम कोटि की होती है जैसे शार्क आदि उनके भीतर कड़ी हड्डियॉ नहीं होती। नरम हड्डी की रीढ़ होती है और पीठपर ढालदार खोलड़ी होती है जिस पर चौखूँटे उभरे हुए खाने कटे होते है। और मछलियो के भीतर कड़ी हडियो का ढाँचा होता है। मछलियो के साँस लेने के लिए फुप्फुस या फेफड़ा नहीं होता, वे गलफड़ो से साँस लेती है। मछलियों से ही विकाशपरंपरानुसार क्रमशः मेढक आदि जलस्थलचारी जन्तु उत्पन्न हुए है। जिस प्रकार बिना रीढ़वाले जन्तुओ और रीढ़वाले जन्तुओ के बीच के जन्तुओ के कुछ नमूने अब तक पाए जाते है उसी प्रकार जलचर मत्स्यो और जलस्थलचारी जन्तुओ के मध्यवर्ती जन्तु भी अब तक मिलते है। मछलियो का एक भेद होता है जो उभयश्वासी कहलाता है। उभयश्वासी मछलियों को साँस लेने के लिए गलफड़े भी होते है और एक हवा की थैली भी जो फेफड़े का काम देती है। इससे ये मछलियाँ पानी में भी साँस ले सकती हैं ( अर्थात् जल मे मिली हुई अम्लजन वा