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होते गए जो उनकी स्थिति के प्रतिकूल थे। इस प्रकार क्रमशः उनका लोप हो गया। अब भूगर्भ के भीतर उनकी ठठरियाँ कभी कभी मिल जाती हैं।

पंजेवाले सरीसृपो से पक्षियों की उत्पत्ति हुई। दोनो मे ढाँचे की बहुत कुछ समानता अब तक है---जैसे दोनो मे रीढ़ के साथ खोपड़ी एक ही जोड़ से जुड़ी होती है (दो जोड़ों के द्वारा नही जैसा कि अधिकांश उभयचरो तथा सब रीढ़वाले जंतुओं मे होता है) और खोपड़ी के साथ जबड़े कुछ हड्डियो से इस प्रकार जुड़े रहते हैं कि वे बहुत अधिक खुल सकते है। पर इन समानताओ के होते हुए भी पक्षियो के ऊपरी और भीतरी ढाँचे में बहुत कुछ परिवर्तन दिखाई पड़ते है जिनका विधान कई लाख वर्षों के बीच स्थिति के अनुसार क्रमशः होता गया है। सरीसृपो का तीन कोठो का हृदय पक्षियो से आ कर चार कोठो का हो गया जिससेशुद्ध ताजा रक्त शरीर में घूम कर लौटे हुए अशुद्ध रक्त से अलग रहने लगा और शरीर मे गरमी रहने लगी। सरिसृपो की केचुल या खोलड़ी और पक्षियो के पर दोनों ऊपरी त्वक् के विकार है। इसी प्रकार दूसरे जंतुओ के बाल, मुख और खुर भी त्वक् से ही उत्पन्न है, त्वक् के ही विकार है। इन्द्रियाँ भी ऊपरी त्वक् के ही विकार हैं। एक प्रकार के प्राणियो मे ही कुछ के ढाँचो मे किसके प्रभाव से ऐसी विशेषताएँ उत्पन्न होती गई कि उनसे नए नए ढाँचे के जीव उत्पन्न हुए? इसका सीधा उत्तर यही है कि बाह्य संपर्क के प्रभाव से। यह सोच कर आश्चर्य अवश्य होता है कि आदिम क्षुद्र अणुजीवों की सूक्ष्म झिल्ली से विज्ञानमय