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आता है। मनुष्य रीढ़वाला जंतु है और रीढ़वाले जंतुओं में सब से आदिम और क्षुद्रकोटि की मछलियाँ हैं। अस्तु और रीढ़वाले जंतुओ के समान मनुष्य को विकाश भी जलचर पूर्वजों से क्रमशः हुआ है। इसी से आरंभ में मनुष्य के मूलपिंड मे भी जलचरो के समान गलफड़े होते हैं जो आगे चलकर ग़ायब हो जाते हैं। हृदय भी पहले पहल सुकड़ने फैलनेवाला एक सादा कोठा मात्र होता है जैसा कि क्षुद्र कीटो का होता है। पीठ की रीढ पूँछ के रूप मे दूर तक बढ़ी होती है। आगे चलकर जब हाथ पैर का ढाँचा तैयार होता है तब पहले पैर का अंगूठा लबा होता है और हाथ के अंँगूठे के समान इधर उधर सब उँगलियो पर उसी प्रकार जा सकता है जिस प्रकार बंदरों और वनमानुसो का। प्रसव के दो तीन महीने पहले हथेलियो और तलवो को छोड़ सारे शरीर मे रोएँ रहते हैं। गर्भ से बाहर आने पर भी बच्चे का सिर और अंगों के हिसाब से कुछ बड़ा होता है और हाथ भी कुछ लंवे होते हैं। नाक मे वॉसा ( बीचोबीचवाली ऊपर की हुड्डी ) न होने के कारण वह चिपटी होती हैं। ये सब लक्षण वनमानुसों के हैं। एक ढॉचे के जीव से दूसरे ढाँचे के जीव उत्पन्न होने की करोड़ो वर्ष की परम्परा की उद्धरणी नौ महीनों के भीतर इस प्रकार संक्षेप मे हो जाता है। गर्भविधान में किसी एक अवस्था मे पहुँचे हुए पिंड सब जीवो के समान होते हैं। यदि हम मनुष्य, कुत्ते और कछुवे के दो महीने के पिंड को लेकर देखें तो उनमे कुछ भी अंतर न पावेगे, उनका ढाँचा एक ही होगा।