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चक्षुरिद्रिंय की ओर जाता है। चेहरे की ओर जानेवाले और बाकी संवेदनसूत्र मज्जादल से निकले हुए होते हैं। उनमे से पाँचवा जोड़ा चेहरे की त्वचा तथा जीभ और जबड़ो की गतिविधि का सपादन करता है। आठवाँ जोड़ा श्रवणोन्द्रिय से मिला रहता है और नवाँ रसनेंद्रिय से। इनके अतिरिक्त जा संवेदनसूत्र और नीचे से अर्थात् रीढ़ के भीतर गए हुए मेरुरज्जु से निकले होते है वे स्पर्शसंवेदनात्मक और गत्यात्मक सूत्र है जो शरीर के और सब भागो मे जा कर फैले होते है।

वाह्य विषयो को भिन्न भिन्न रूपो से ग्रहण करने के लिये यह आवश्यक है कि भिन्न भिन्न इंद्रियो तक आए हुए संवेदन सुत्रो के छोरो की रचना और व्यवस्था भिन्न भिन्न प्रकार की हो। नेत्रगत संवेदनसूत्रो के सिरे प्रकाश ग्रहण करने के उपयुक्त हैं, श्रवण के वायुतरंग ग्रहण करने के, त्वक् के स्पर्श ग्रहण करने के इसी प्रकार और भी समझिए। पर अभी तक शरीर विज्ञानियों का इस विषय मे एकमत नही हुआ है कि विशेष विशेष विषयों के ग्रहण के लिए संवेदनसूत्रो मे क्या क्या विशेषताएँ कहाँ तक होनी चाहिए।

ऊपर जिस अतःकरण या मनोव्यापारयंत्र का वर्णन हुआ है वह मनुष्य आदि उन्नत प्राणियो का है। विषय-संपर्क होने से अंगो मे गति इस प्रकार होती है। नेत्र, त्वक्, रसन आदि इंद्रियो अर्थात् अंतर्मुख संवेदनसूत्रों के, विशेष विशेष प्राप्यकारी छोरो पर विषयसंपर्क होते ही एक प्रकार का विकार या संस्कार उत्पन्न होता है जो गतिप्रवाह के रूप मे मस्तिष्क से पहुँचता है। उसके वहाँ पहुँचने ही संवेदना जाग्रत होती