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है। इस सवेदना के कारण प्रेरणा उत्पन्न होती है जो गतिवाहक सूत्रो द्वारा बाहर की ओर पलट कर किसी अंग को हिलाती है। यदि किसी का पैर अचानक मेरे पैर के ऊपर पड़ जाय तो मै अपना पैर बिना इच्छा या संकल्प के भी झट हटा लूँगा।

संपर्क पा कर अंगो में गति उत्पन्न होने के लिए चेतना की आवश्यकता नही। अणुजीवो तथा और क्षुद्र कोटि के जीवो मे मस्तिष्क और संवेदनसूत्रों का विधान नहीं होता। अणुजीब तो कललरस की सूक्ष्म कणिका मात्र होते हैं। पर वे भी छू जाने पर सुकड़ते या हटते हैं। उनकी यह क्रिया चेतन नही, प्रतिक्रिया मात्र है। क्षुद्र जीवो के शरीर पर बाहरी संपर्क या उत्तेजन से उत्पन्न क्षोभ गतिप्रवाह के रूप में कललरस के अणुओ द्वारा भीतर केन्द्र मे पहुँचता है और वहाँ से प्रेरणा के रूप में बाहर की ओर पलट कर शरीर मे गति उत्पन्न करता है। वस्तुसंपर्क के प्रति यह एक प्रकार की अचेतन क्रिया है जो ज्ञानकृत या इच्छाकृत नहीं होती, केवल कललरस के भौतिक और रासायनिक गुणो के अनुसार होती है, जैसे, छूने से लजालू की पत्तियो का सिमटना, क्षुद्र कीटो का अग मोडना या हटना इत्यादि। चेतनाविशिष्ट पूर्ण अतःकरण युक्त मनुष्य आदि बड़े जीवो मे भी यह अचेतन प्रतिक्रिया होती है। उनमे विपयसंपर्कजनित इंद्रियसस्कार अतर्मुख सवेदनसूत्रों द्वारा भीतर की ओर जाता है पर मस्तिष्क तक नही पँहुचता, बीच ही से मेरुरज्जु या और किसी स्थान से वहिर्मुख गत्यात्मक सूत्रो द्वारा पलट पड़ता है और अंग विशेष मे गति उत्पन्न करता है। जैसे, आँख के पास किसी वस्तु के