पृष्ठ:विश्व प्रपंच.pdf/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
( ८२ )


अस्वीकार करते हैं। वे चेतना को एक शरीरधर्म मात्र कहते हैं जिसका विकाश उसी प्रकार होता है जिस प्रकार और और भौतिक गुणो का। शरीर के साथ वह भी बढ़ती, विकृत होती और अंत मे नष्ट होती है। आत्मा भूतो से परे कोई नित्य और अपरिच्छन्न सत्ता नही, वह मस्तिष्क की ही वृत्ति है। मस्तिष्क के विना चेतन व्यापार असंभव हैं। अनात्मवादी भूतो से परे आत्मा की सत्ता का अस्तित्व 'गतिशक्ति की अक्षरता' और 'द्रव्य की अविचलता' के सिद्धात द्वारा असिद्ध कहते है। गतिशक्ति की अक्षरता का सिद्धांत, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, यह है कि गतिशक्ति जितनी है उतनी ही रहती है, परिणाम द्वारा वह घट बढ़ नहीं सकती। यदि भौतिक शरीर जो व्यापार करता है उससे चेतना को भिन्न माने तो इसका मतलब यह है कि संवेदनसूत्रो के क्षोभ के रूप मे जो भौतिक क्रिया होती है वह अभौतिक चेतन क्रिया के रूप में परिवर्तित हो जाती है * अर्थात् उतनी गतिशक्ति नही रह जाती, उसका क्षय हो जाता है। यह बात भौतिक विज्ञान से असिद्ध है। द्रव्य की अविचलता का सिद्धांत यह


  • यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि विज्ञान में केवल समवायि कारण ही माना जाता है, निमित्त नहीं । जैसे, यदि किसी स्थिर गोले को हमने हाथ के धक्के से चला दिया तो इस गति के कारण की मीमासा इसी प्रकार होगी कि हाथ की गतिशक्ति जाकर गोले की गतिशक्ति के रूप में परिणत हो गई। जितने व्यापार सृष्टि में होते है सब का कारणनिरूपण विज्ञान इसी प्रकार करेगा।