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कारण के केवल आत्मसंकल्प द्वारा हिला सकते हैं। इससे सिद्ध है कि आत्मसत्ता भूतो से परे और स्वतंत्र है। कोई अभौतिक सत्ता भौतिक गतिविधि पर कोई प्रभाव नही डाल सकती इसके प्रमाण मे जो 'द्रव्य की अविचलता' का सिद्धांत उपस्थित किया जाता है आत्मवादी उसके प्रतिवाद मे गणितज्ञो का गतिशास्त्र संबंधी यह निरूपण पेश करते हैं--'कोई द्रव्यखंड जिस दिशा को जा रहा है उस पर जिस शक्ति का पथ समकोण बनाता हुआ होगा वह शक्ति उस द्रव्यखंड का पथ बिना गतिशक्ति के व्यय या वृद्धि के बदल सकती है। इसी रूप से आत्मसन्ता भी चलते द्रव्य की दिशा मे, बिना उसकी शक्ति की वृद्धि या हास किए, फेरफार कर सकती है। इस प्रकार आत्मस्वातंत्र्य के संबंध मे आधिभौतिक पक्ष की जो शकाए हैं उनका समाधान हो सकता है।

झूम आदि कुछ दार्शनिको ने बौद्धो के समान क्षणिक ज्ञान को ही आत्मा या मन कहा। क्षण क्षण पर बदलने वाले ज्ञानो ( या विज्ञान ) से भिन्न उनका अधिष्ठान रूप कोई स्थिर या एक ज्ञाता नही है। भिन्न भिन्न ज्ञानो के बीच एक स्थिर 'अहम्' का जो भान होता है वह एक आरोप मात्र है क्योकि उसकी उत्पत्ति किसी इंद्रियज ज्ञान या संस्कार से नहीं है। मन या आत्मा क्षणिक चेतन अवस्थाओ की परंपरा का ही नाम है। इस मत मे मिल आदि तत्त्वज्ञो को यह अनिवार्य बाधा दिखाई दी कि सस्कारो की परंपरा को अपने परंपरा होने का बोध क्यों कर होता है। प्रो० जेम्स ने भी अपने मनोविज्ञान मे कहा है कि प्रत्येक क्षण में आया हुआ भाव या ज्ञान ही भावुक