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या ज्ञाता है। एक क्षण का अहंभाव विगत क्षण के अहंभाव से भिन्न होता है, पर भिन्न होने पर भी उसका उत्तराधिकारी या संग्राहक होता है। वह पिछले क्षण का भाव भी अपने से पूर्ववर्ती भाव का संग्राहक था, अतः उसके संग्रह के साथ उससे पिछले भाव का भी संग्रह समझ लेना चाहिए। कहने की आवश्यकता नही किं यह सब चक्कर संबंधसूत्र के अभाव की पूर्ति के लिए काटना पड़ा है। विकाशवाद की पद्धति के अनुसार आजकल मनोविज्ञान के अधिकतर ग्रंथ मनोव्यापारो के क्रमविधान की ही मीमांसा करते है, सत्ता के विचार में प्रवृत्त नही होते। ये व्यापार किसके हैं, शरीर से अलग कोई आत्मसत्ता है या नहीं इन बातो को वे अपने विषय ( जिसे वे शुद्ध विज्ञान की एक शाखा मानते है ) से अलग सत्तादर्शन या परा विद्या का विषय बतलाते है। यहाँ तक कि मनोविज्ञान के बहुत से ग्रंथो मे अब आत्मा शब्द भूल कर भी नही आने पाता, जहाँ तक हो सकता है बचाया जाता है।

सब ज्ञानो का ज्ञाता कोई एक है जो क्षण क्षण पर उदय होने वाले नाना ज्ञानों के बीच भी सदा वही रहता है इस बात के विरुद्ध प्रमाण मे वह विलक्षण मानसिक रोग भी उपस्थित किया जाता है जिसे 'दोहरी चेतना' या 'छाया' कहते है। इसमें एक व्यक्ति कभी कभी बिल्कुल दूसरे व्यक्ति का सा आचरण करने लगता है, उसका व्यक्तित्व एक दम बदल जाता है। किसी देवता या भूत प्रेत का सिर पर आना इसी प्रकार का रोग है। इस रोग के कई विलक्षण दृष्टांत योरप मे भी देखे गए हैं। फेलिडा नाम की एक लड़की सन् १८४८ मे पैदा हुई। १४ वर्ष तक तो