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उसकी दशा ठीक रही। सन् १८६५ मे वह एक दिन एकबारगी बेहोश हो गई। कुछ देर में जब उसे होश हुआ तब उसकी प्रकृति एक दम बदली हुई पाई गई। पहले वह चुप्पी, हठी, शांत तथा मंद बुद्धि और चष्टा की थी, पर बेहोशी के पीछे वह हँसमुख, चंचल और तीव्र बुद्धि की हो गई। इस दूसरी अवस्था मे उसे अपनी पहली, अवस्था की सब बातो का स्मरण था और देखने मे वह सब प्रकार भली चंगी थी। कुछ महीनो पीछे बेहोशी का दूसरा दौरा हुआ और वह फिर अपनी पहली अवस्था को प्राप्त हो गई। इस अवस्था मे उसे अपनी दूसरी अवस्था की बातो का कुछ भी स्मरण नहीं था। जब तक वह रही बारी बारी से ये दोनो अवस्थाएँ उसकी होती रहीं। अतः यह कहा जा सकता है कि उसकी दो अलग अलग चेतनाएँ या आत्माएँ थी। इसी संबंध मे वे व्यापार भी ध्यान देने योग्य है जिन्हे 'प्रतिक्रिया' और 'गौण चेतना' कहते है। सोने में यह प्राय: देखा जाता है कि छूने से पैर हट जाता है, यद्यपि इस व्यापार का कुछ भी ज्ञान नहीं होता। जब ध्यान किसी दूसरी ओर लगा रहता है तब सब इंद्रियाँ खुली रहने पर भी हमे कभी कभी शब्द, स्पर्श, दृश्य का ज्ञान नही रहता। कोई बैठा लिख रहा है। बाहर जो शब्द होरहा है, उँगलियो से जो वह कलम पकड़े हुए है, उसका उसे कुछ भी ज्ञान नही है। जब मै जान बूझकर ध्यान ले जाऊँगा तभी उन बातो का ज्ञान होगा। एक ओर तो जोर जोर से पढ़ते जाना और दूसरी और अर्थ भी ग्रहण करते जाना, बाजे पर उँगली रख रख कर बजाते