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भी जाना और गाते भी जाना विभक्त चेतना के व्यापार हैं। इस प्रकार के युगपद् मनोव्यापार यह सूचित करते हैं कि चेतना की प्रधान धारा से अलग होकर गौण धारा भी चलती है। अतः चेतना के एक अखंड, निर्विकार, सदा एकरस आत्मा होने का प्रमाण नहीं मिलता।*

आत्मवादी कहते हैं कि यदि मन केवल चेतन अवस्थाओ की परंपरा मात्र होती, यदि क्षणिक ज्ञानो का ही नाम मन होता तो विचार, तर्क, आत्मनिरीक्षण आदि असंभव होते। तर्क के लिए यह आवश्यक है कि भिन्न भिन्न अवयवो को


*मस्तिष्क के विवरण में दिखाया जा चुका है कि संपर्क पाकर अग को हटाना, किसी वस्तु को पकड़ना आदि व्यापार बड़े जीवो मे मस्तिष्क और संवेदनसूत्रों की क्रिया से होते है। संवेदन सूत्रो द्वारा जब स्पंदन मस्तिष्क में पहुँचता है तब गतिवाहक सूत्रों मे स्पंदन होता है जो अंग विशेष में पहुँच कर उसे हिलाता है। यदि अंगव्यापार चेतन संकल्प द्वारा उत्पन्न नही है तो प्रतिक्रिया मात्र है, शुद्ध अंतःकरण (मस्तिष्ककेंद्र) का व्यापार नहीं। हमारे यहाँ के दार्शनिक इसे मन का व्यापार न कहेंगे, इंद्रियो का स्थूल व्यापार कहेंगे। इद्रियाँ मन से संबद्ध होकर जो व्यापार करेंगी उसी को वे मनोव्यापार के अतर्गत लेंगे। मन के एकत्व का प्रतिपादन करते हुए नैयायिक मन के युगपद् व्यापार असंभव कहते है। उनका कहना है कि एक क्षण में एक ही ज्ञान होता है। अतः बाजा बजाते हुए गाने में जो एक साथ दो दो मनोयोग कहे गए हैं उनके बीच वे सूक्ष्म कालांतर की कल्पना करेंगे।