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विचारो तक पहुँचते है। विकाश के आधिभौतिक अनुयायिओं का कहना है कि जैसे और सब वस्तुओ का वैसे ही मन या मानसिक वृत्तियो का भी संघटन वाह्य जगत् के नियमों के अनुकूल होता है। अंतर्जगत् या आध्यात्मिक जगत् की भूतो से परे कोई सत्ता नही है। विचार और वस्तुव्यापार का जो समन्वय दिखाई पड़ता है वह वस्तुव्यापार के ही प्रतिबिंब के कारण (अद्वैत आत्मवादी जर्मन दार्शनिक इसका उलटा मानते है )।

इसी प्रकार धर्माधर्म या कर्त्तव्यशास्त्र की नीवँ भी लोकरक्षा और फलतः आत्मरक्षा पर डाली गई है। एक मूल रूप से क्रमश अनेक रूपो की उत्पात्ति, एक सादे ढाँचे से अनेक जटिल ढाँचो का उत्तरोत्तर विधान, यही विकाश का साराश है। इस सिद्धात के अनुसार जिस प्रकार यह असिद्ध है कि मनुष्य ऐसा प्राणी सृष्टि के आदि मे ही एकबारगी उत्पन्न होगया उसी प्रकार यह भी असिद्ध है कि मनुष्य जाति के बीच धर्म, ज्ञान और सभ्यता आदिम काल मे भी उतनी ही या उससे बढ़ कर थी जितनी आजकल है। आधुनिक मत यही है कि मनुष्य जाति असभ्य दशा से उन्नति करते करते सभ्य दशा को प्राप्त हुई है। अत्यंत प्राचीन लोगो को बहुत अल्प विषयो का ज्ञान था। धीरे धीरे उस ज्ञान की वृद्धि होती गई है। इसी प्रकार धर्मभाव भी पहले बहुत स्वल्प और सादे रूप में था, पीछे सामाजिक व्यवहारो की वृद्धि के साथ साथ उसका भी अनेक रूपो मे विकाश होता गया।

लोक-व्यवहार और समाज विकाश की दृष्टि से ही धर्म