पृष्ठ:वेनिस का बाँका.djvu/१३

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लेखक का संक्षिप्त परिचय

नरत्वं दुर्लभं लोके विद्या तत्र च दुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा॥

वास्तव में पूर्वोक्त श्लोक का एकएक अक्षर सत्य है। जीवधारियों में मनुष्यत्व-प्राप्ति ही श्रेय है। मनुष्य कहलाने पर भी, भारत की इस गिरती अवस्था में भारतवासियो में, कितने लिखे पढ़े हैं। विद्वानों की संख्या तो और भी परिमित है। इनमें से भी कुछ ही वास्तविक कवि कहे जाने योग्य होते हैं। ईश्वरदत्त प्रतिभा, निमल पठन पाठन तथा अनवरत अभ्यास ही कविम्व शक्ति के प्रधान साधन हैं। इतना जिनमें हो, वे ही प्रकृत कवि है । या तो हिंदी साहित्य में आज अपने को कवि कहनेवालो की संख्या का कुछ ठिकाना नहीं। परन्तु वैसे सुकवि, जिन्हें सभी कवि मानते हों, अल्पसंख्यक ही हैं और सदा ही रहेंगे।

पं० अयोध्यासिंह जी उपाध्याय ऐसे ही सुकवि हैं, सुकवि ही क्या वरन् उनमे महाकवि के सभी गुण मौजूद हैं। हिंदी साहित्य में आपका स्थान अत्यंत ऊँचा तथा अमर है और वर्तमान काल के कवि तथा लेखको में आपका पद बहुत ही प्रतिष्ठित है। इसी प्रतिष्ठा के फलस्वरूप अखिल भारतवर्षीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्दश सम्मेलन के आप सभापति बनाए गए थे। आप अगस्त्य गोत्रीय, शुक्ल यजुर्वेदीय सनाढ्य ब्राह्मण हैं। आपके पूर्व पुरुष बदायूँ के रहनेवाले थे पर लगभग तीन शताब्दी के व्यतीत हुए कि जब वे सपरिवार वहाँसे आकर आजमगढ़ के अंतर्गत तमसा नदी के किनारे पर बसे हुए निज़ामाबाद नामक करबे में बस गये। जमींदारी और वंश