पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६८
वैदेही-वनवास

जो ज्योतिर्मय बूटों से बहु सज्जित हो था कान्त बना।
अखिल-कलामय कुल लोकों का अति कमनीय वितान तना ॥
दिखा अलौकिकतम-विभूतियाँ चकित चित्त को करता था।
लीलामय की लोकोत्तरता लोक - उरों में भरता था॥४।।

राका-रजनी अनुरंजित हो जन - मन - रंजन में रत थी।
प्रियतम-रस से सतत सिक्त हो पुलकित ललकित तद्गत थी॥
ओस-विन्दु से विलस अवनि को मुक्ता माल पिन्हाती थी।
विरच किरीटी गिरि को तरु-दल को रजताभ बनाती थी ।।५।।

राज-भवन की दिव्य -अटा पर खड़ी जनकजा मुग्ध बनी।
देख रही थीं गगन-दिव्यता सिता-विलसिता-सित अवनी ॥
मंद मंद मारुत बहता था रात दो घड़ी बीती थी।
छत पर बैठी चकित - चकोरी सुधा चाव से पीती थी ।।६।।

थी सब ओर शान्ति दिखलाती नियति - नटी नर्तनरत थी।
फूली फिरती थी प्रफुल्लता उत्सुकताति तरंगित थी।
इसी समय बढ़ गया वायु का वेग, क्षितिज पर दिखलाया-
एक लघु - जलद - खण्ड पूर्व में जो बढ़ वारिद वन पाया ॥७॥

पहले छोटे छोटे घन के खण्ड घूमते दिखलाये।
फिर छायामय कर क्षिति - तल को सारे नभतल में छाये ।
तारापति छिप गया आवरित हुई तारकावलि सारी।
सिता बनी असिता, छिनती दिखलाई उसकी छवि - न्यारी ॥८॥