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पंचम सर्ग

यदि कलंकिता हुई कीर्ति तो मुँह कैसे दिखलाऊँगी।
जीवनधन पर उत्सर्गित हो जीवन धन्य बनाऊँगो ।
है लोकोत्तर त्याग आपका लोकाराधन है न्यारा।
कैसे संभव है कि वह न हो शिरोधार्य मेरे द्वारा ।।२९।।

विरह - वेदनाओं से जलती दीपक सम दिखलाऊँगी।
पर आलोक - दान कर कितने उर का तिमिर भगाऊँगी ।।
बिना बदन अवलोके आँखे ऑसू सदा बहायेगी।
पर मेरे उत्तप्त चित्त को सरस सदैव बनायेगी ॥३०॥

आकुलताये बार - बार आ मुझको बहुत सतायेगी।
किन्तु धर्म - पथ मे धृति-धारण का सन्देश सुनायेगी।
अन्तस्तल की विविध-वृत्तियाँ बहुधा व्यथित बनायेगी।
किन्तु वंद्यता विवुध-वृन्द - वन्दित की बतला जायेगी ॥३१॥

लगी लालसाये लालायित हो हो कर कलपायेगी।
किन्तु कल्पनातीत लोक - हित अवलोके बलि जायेगी ।।
आप जिसे हित समझे उस हित से ही मेरा नाता है ।
हैं जीवन - सर्वस्व आप ही मेरे आप विधाता हैं ॥३२॥

कहा राम ने प्रिये अब प्रिये कहते कुण्ठित होता हूँ।
अपने सुख - पथ में अपने हाथों में काटे बोता हूँ ॥
मैं दुख भोगू व्यथा सहूँ इसकी मुझको परवाह नहीं।
पड़ें, संकटों मे कितने निकलेगी मुँह से आह नही ।।३३।।