पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/१६३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२५
अष्टम सर्ग

देख रहा हूँ मैं पति की चर्चा चले।
वारि हगों में बार बार आता रहा ।।
किन्तु मान धृति का निदेश पीछे हटा।
आगे बढ़कर नही धार बनकर बहा ॥५४॥

है मुझको विश्वास गर्भ - कालिक नियम ।
प्रति दिन प्रतिपालित होंगे संयमित रह ।।
होगा जो सर्वस्व अलौकिक - खानि का।
रघुकुल - पुंगव लाभ करेगे रत्न वह ॥५५।।

इतनी बाते कह मुनि पुंगव ने बुला।
तपस्विनी आश्रम - अधीश्वरी से कहा ।।
आश्रम मे श्रीमती जनक - नन्दिनी को।
आप लिवा ले जायँ कर समादर - महा ॥५६।।

जो कुटीर या भवन अधिक उपयुक्त हो।
जिसको स्वयं महारानी स्वीकृत करे ॥
उन्हें उसी में कर सुविधा ठहराइये।
जिसके दृश्य प्रफुल्ल - भाव उर मे भरे ॥५७।।

यह सुन लक्ष्मण से विदेहजा ने कहा ।
तुमने मुनिवर की दयालुता देख ली।
अत चले जाओ अव तुम भी, और मैं-
तपस्विनी आश्रम से जाती हूँ चली ॥५८।