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वैठेही-वनवास

फिर भी प्रभु की स्मृति, दर्शन की लालसा।
उन्हें बनाती रहती है व्यथिता अधिक ।।
यह स्वाभाविकता है उस सद्भाव की।
जो आजन्म रहा सतीत्व - पथ का पथिक ।।२१।

जिसने अपनी वर - विभूति - विभुता दिखा।
रज समान लंका के विभवों को गिना ।।
जिसके उस कर से जो दिव - वल - दीप्त था।
लंकाधिप का विश्व - विदित - गौरव छिना ॥२२॥

कर प्रसून सा जिसने पावक - पुंज को।
दिखलाई अपनी अपूर्व तेजस्विता ॥
दानवता आतपता जिसकी शान्ति से।
बहुत दिनों तक वनती रही शरद सिता ।।२३।।

वड़े अपावन - भाव परम - पावन बने ।
जिसकी पावनता का करके सामना ॥
चौदह वत्सर तक जिसकी धृति - शक्ति से।
वहु दुर्गम वन अति सुन्दर उपवन बना ॥२४॥

इष्ट - सिद्धि होगी उसका ही बल मिले।
सफल बनेगी कठिन से कठिन साधना ॥
भव - हित होगा भय - विहीन होगी धरा ।
होवेगी लोकोत्तर लोकाराधना ॥२५॥