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नवम सर्ग

यह निश्चित है पर आर्या की वेदना ।
जितनी है दुस्सह उसको कैसे कहूँ।
वे हैं महिमामयी सहन कर ले व्यथा।
उन्हें व्यथा है, इसको मैं कैसे सहूँ ॥२६॥

कुलपति आश्रम - गमन किसे प्रिय है नही ।
इस मांगलिक - विधान से मुदित हैं सभी ॥
पर न आज है राज - भवन ही श्री - रहित ।
सूना है हो गया अवध सा नगर भी ॥२७॥

मुनि - आश्रम के वास का अनिश्चित समय ।
किसे बनाता है नितान्त - चिन्तित नही ।
माताये यदि व्यथिता हैं वधुओ - सहित ।
पौर - जनो का भी तो स्थिर है चित नही ॥२८॥

मुझे देख सबके मुख पर यह प्रश्न था।
कब आयेगी पुण्यमयी - महि - नन्दिनी ।
अवध पुरी फिर कब होगी आलोकिता ।
फिर कब दर्शन देगी कलुप - निकन्दिनी ॥२९॥

प्रायः आर्या जाती थी प्रात समय ।
पावन - सलिला - सरयू सरिता तीर पर ।
और वहाँ थी दान - पुण्य करती वहुत ।
वारिद - सम वर-वारि-विभव की वृष्टि कर ॥३०॥