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वैदेही-वनवास
जंगल में मंगल होता है।

भव-हित-रत के लिये गरल भी बनता सरस-सुधा सोता है।
कॉटे बनते हैं प्रसून - चय कुलिश मृदुलतम हो जाता है ।।
महा-भयंकर परम-गहन - वन उपमा उपवन की पाता है।
उसको ऋद्धि सिद्धि है मिलती साधे सभी काम सधता है।
पाहन पानी में तिरता है, सेतु वारिनिधि पर बंधता है।
दो बाहें हों किन्तु उसे लाखों बाहों का बल मिलता है ।।
उसीके खिलाये मानवता का बहु-म्लान-बदन खिलता है ।
तीन लोक कम्पितकारी अपकारी का मद वह ढाता है ।।
पाप-ताप से तप्त - धरा पर सरस - सुधा वह बरसाता है।
रघुकुल - पुंगव ऐसे ही हैं, वास्तव में वे रविकुल - रवि हैं।
वे प्रसून से भी कोमल हैं, पर पातक - पर्वत के पवि हैं।
सहधर्मिणी आप हैं उनकी देवि आप दिव्यतामयी हैं ।
इसीलिये बहु-प्रबल - बलाओं पर भी आप हुई बिजयी हैं।
आपकी प्रथित-सुकृति-लता के दोनों सुत दो उत्तम-फल हैं ।।
पावन-आश्रम के प्रसाद हैं, शिव - शिर-गौरव गंगाजल है ।
पिता-पुण्य के प्रतिपादक हैं, जननी-सत्कृति के सम्बल हैं ।
रविकुल-मानस के मराल हैं, अथवा दो उत्फुल्ल-कमल हैं।
मुनि-पुंगव की कृपा हुए वे सकल-कला-कोविद वन जावें ।
चिरजीवे कल-कीर्ति सुधा पी वसुधा के गौरव कहलावे ॥२॥५६॥