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वैदेही-वनवास

उन्हें रोकती रहती आश्रम - स्वामिनी ।
कह वे बातें जिन्हें उचित थी जानती ॥
किन्तु किसी दुख में पतिता को देखकर ।
कभी नहीं उनकी ममता थी मानती ॥४॥

देख चींटियों का दल ऑटा छींटती।
दाना दे दे खग - कुल को थी पालती ।।
मृग - समूह के सम्मुख, उनको प्यार कर।
कोमल - हरित तृणावलि वे थी डालती ॥५॥

शान्ति - निकेतन के समीप के सकला- तरु ।
रहते थे खग - कुल के कूजन से स्वरित ॥
सदा वायु - मण्डल उसके सब ओर का।
रहता था कलकण्ठ कलित - रव से भरित ॥६॥

किसी पेड़ पर शुक बैठे थे वोलते।
किसी पर सुनाता मैना का गान था।
किसी पर पपीहा कहता था पी कहाँ।
किसी पर लगाता पिक अपनी तान था॥७॥

उसके सम्मुख के सुन्दर - मैदान में।
कही विलसती थी पारावत - मण्डली ॥
बोल बोल कर बड़ी - अनूठी - बोलियाँ।
कही केलिरत रहती बहु - विहगावली ॥८॥