पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/२५६

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चतुर्दश सर्ग
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दाम्पत्य-दिव्यता
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तिलोकी

प्रकृति - सुन्दरी रही दिव्य - वसना बनी।
कुसुमाकर द्वारा कुसुमित कान्तार था।
मंद मंद थी रही विहँसती दिग्वधू ।
फूलों के मिष समुत्फुल्ल संसार था ॥ १ ॥

मलयानिल वह मंद मंद सौरभ - वितर।
वसुधातल को बहु - विमुग्ध था कर रहा ॥
स्फूर्तिमयी - मत्तता - विकचता - रुचिरता।
प्राणि मात्र अन्तस्तल मे था भर रहा ॥२॥

शिशिर-शीत-शिथिलित-तन-शिरा-समूह में।
समय शक्ति - संचार के लिये लग्न था ।
परिवर्तन की परम - मनोहर - प्रगति पा।
तरु से तृण तक छवि - प्रवाह में मग्न था॥ ३ ॥