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वैदेही-वनवास

पहचाने पति के पद को मुंह से कभी।
निकल नहीं पाती अपुनीत - पदावली ॥
सहज - मधुरता मानस के त्यागे बिना।
अमधुर बनती नहीं मधुर - वचनावली ॥१०४॥

है 'कठोरता, काठ शिला से भी कठिन ।
क्यों न प्रेम - धारायें ही उनमें बहें ॥
कोमल हैं तो बने अकोमल किसलिये।
क्यों न कलेजे बने कलेजे ही रहें ॥१०५॥

जिसमें है न सहानुभूति - मर्मज्ञता।
सदा नहीं होता जो यथा - समय - सदय ।।
जिसमें है न हृदय - धन की ममता भरी।
हृदय कहायेगा तो कैसे वह हृदय ॥१०६॥

क्या गरिमा है रूप, रंग, गुण आदि की।
क्या इस भूति - भरित - भूमध्य निजस्व है।
जो उत्सर्ग न उस पर जीवन हो सका।
जो इस जगती में जीवन - सर्वस्व है॥१०७।।

अवनी में जो जीवन का अवलम्ब है।
सब से अधिक उसी पर जिसका प्यार है।
वह पतिता है जो उससे है उलझती ।
जिस पति का तन, मन, धन पर अधिकार है ॥१०८।।