पृष्ठ:वैदेही-वनवास.djvu/७४

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वैदेही-वनवास

रही जो कण्टक - पूरित राह ।
वहाँ अब बिछे हुए हैं फूल ॥
लग गये हैं अब वहाँ रसाल।
जहाँ पहले थे खड़े ववूल ॥२९।।

प्रजा में व्यापी है प्रतिपत्ति ।
भर गया है रग रग में ओज ॥
शस्य - श्यामला बनी मरु - भूमि ।
ऊसरों में हैं खिले सरोज ॥३०॥

नही पूजित है कोई व्यक्ति।
आज हैं पूजनीय गुण कर्म ॥
वही है मान्य जिसे है ज्ञात ।
मानसिक पीड़ाओं का मर्म ॥३१॥

इसलिये है यह निश्चित वात ।
प्रजाजन का यह है न प्रमाद ॥
कुछ अधम लोगों ने ही व्यर्थ ।
उठाया है यह निन्दावाद ॥३२॥

सर्व साधारण मे अधिकांश ।
हुआ है जन - रव का विस्तार ॥
मुख्यत. उन लोगों में जो कि ।
नहीं रखते मति पर अधिकार ॥३३॥