पृष्ठ:वैशाली की नगरवधू.djvu/४२

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वेदना का नाश होता है। वेदना के नाश से तृष्णा का नाश होता है। तृष्णा-नाश से उपादान का नाश होता है। उपादान-नाश से भव का नाश होता है। भव-नाश से जाति का नाश होता है। जाति-नाश से जरा, मरण शोक, दुःख और चित्तविकार का नाश होता है। इस प्रकार दुःख पुञ्ज का नाश होता है, यही सत्य ज्ञान प्राप्त कर गौतम ने बुद्धत्व पद ग्रहण किया। वे समाधि से उठकर आनन्दित हो कहने लगे, "मैंने गंभीर, दुर्दर्शन, दुर्जेय, शांत, उत्तम, तर्क से अप्राप्य धर्मतत्त्व को जान लिया।" उनके अन्तस्तल में एक आवाज़ उठी––'लोक नाश हो जाएगा रे, यदि तथागत का सम्बुद्ध चित धर्म-प्रवर्तन न करेगा।' उन्होंने अपनी ही शुद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा से कहा––'हे शोकरहित! शोक-निमग्न और जन्म-जरा से पीड़ित जनता की ओर, देख उठ। हे संग्रामजित्! हे सार्थवाह! हे उऋणऋण! जग में विचर, धर्मचक्र-प्रवर्तन कर!"

उन्होंने प्रबुद्ध चक्षु से लोक को देखा। जैसे सरोवर में बहुत-से कमल जल के भीतर ही डूबकर पोषित हो रहे हैं, बहुत-से जल के बराबर, बहुत-से पुण्डरीक जल से बहुत ऊपर खड़े हैं, इसी भांति अल्पमल, तीक्ष्ण बुद्धि, सुस्वभाव, सुबोध्य प्राणी हैं जो परलोक और बुराई से भय खाते हैं।

बुद्ध ने निश्चय किया कि मैं विश्व-प्राणियों को अमृत का दान दूंगा और वे तब उरुबेला से काशी की ओर चल खड़े हुए। मार्ग में उन्हें उपक आजीवक मिला। उसने उस तेजस्वी, शांत, तृप्त गौतम को देखकर कहा––"आयुष्मान्! तेरी इन्द्रियां प्रसन्न, तेरी कान्ति निर्मल है, तू किसे गुरु मानकर प्रव्रजित हुआ है?"

गौतम ने कहा––"मैं सर्वजय और सर्वज्ञ हूं, निर्लेप हूं, सर्वत्यागी हूं, तृष्णा के क्षय से मुक्त हूं। मेरा गुरु नहीं है। मैं अर्हत हूं, मैं सम्यक्-सम्बुद्ध, शान्ति तथा निर्माण को प्राप्त हूं, मैं धर्मचक्र-प्रवर्तन के लिए कोशियों के नगर में जा रहा हूं।"

उपक ने कहा––"तब तो तू आयुष्मान् जिन हो सकता है!"

"मेरे चित्त-मल नष्ट हो गए हैं, मैं जिन हूं।"

"संभव है आयुष्मान्!" यह कहकर वह दिगम्बर उपक चला गया।

गौतम वाराणसी में ऋषिपत्तन मृगदाव में आ पहुंचे। पंचवर्गीय साधुओं ने उन्हें देखकर पहचान लिया। गौतम उनके साथ कठिन तपश्चरण कर चुके थे। एक ने कहा––"अरे, यह साधनाभ्रष्ट जोरू-बटोरू श्रमण गौतम आ रहा है, इसे अभिवादन नहीं करना चाहिए, प्रत्युथान भी नहीं देना चाहिए, न आगे बढ़कर इसका पात्र-चीवर लेना चाहिए, केवल आसन रख देना चाहिए, बैठना हो तो बैठे।"

परन्तु गौतम के निकट आने पर एक ने उन्हें आसन दिया, एक ने उठकर पात्र चीवर लिए, एक ने पादोदक, पाठपीठ, पादकठलिका पास ला रखी। गौतम ने पैर धोए, आसन पर बैठे, बैठकर कहा––"भिक्षुओ, मैंने जिस अमृत को पाया है, उसे मैं तुम्हें प्रदान करता हूं।"

पंचवर्गीय साधुओं ने कहा––"आवुस गौतम, हम जानते हैं, तुम उस साधना में, उस धारणा में, उस दुष्कर तपस्या में भी आर्यों के ज्ञान-दर्शन की पराकाष्ठा को नहीं प्राप्त हो सके और अब साधनाभ्रष्ट हो...।"

गौतम ने कहा––"भिक्षुओ, तथागत को आवुस कहकर मत पुकारो। तथागत अर्हत