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गुण

इसका संक्षेप से कुछ हाल लिखना यहां पर आवश्यक है—

रूप (रंग)

गुणों में रुप का प्रत्यक्ष चक्षुरिन्द्रिय (आंख) से होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि इन्हीं तीनों द्रव्यों के देखने में रूप आंख का सहकारी होता है। रूप के देखे आने में चार बातों की आवश्यकता है। (१) जिस वस्तु का वह रूप है उसका परिमाण महत् हो। इसी कारण से सूक्ष्म परमाणु का रूप नहीं देखा जाता। (२) रूप व्यक्त होना चाहिये। चक्षुरिन्द्रिय तैजस (अग्नि की बनी हुई) है इससे इसका रूप श्वेत अवश्य है परन्तु व्यक्त न होने के कारण दिखाई नहीं पड़ता। (३) रूप अनभिभूत रहना चाहिये। अर्थात् यह किसी प्रबल गुणान्तर से दबा न हो। जैसे मामूली अग्नि का श्वेत रंग उसमें मिले हुए पृथिवी अंश के रूपान्तर से ऐसा दबा रहता है कि हम उसे उजले के बदले लाल देखते हैं। (४) रूपत्व जाति। शब्द स्पर्श इत्यादि गुण आंख से नहीं देखे जाते, इसमें कारण यदि पूछा जाय तो यही कहा जा सकता है कि इनमें रूपत्व जाति नहीं है।

रंग कै प्रकार का है सो प्राचीन ग्रन्थों में नहीं गिनाया है। शुक्ल आदि अनेक प्रकार के रंग हैं—प्रशस्तपाद ने इतना ही कहा है। तर्कसंग्रह में सात गिनाये हैं—शुक्ल, नील, पीत, रक्त, हरित, कपिश, और चित्र। कुछ लोग चित्र रूप को एक रूप नहीं मानते क्यों कि रूप व्याप्यवृत्ति गुण है। अर्थात् जिस वस्तु में रहता है वह चीज समूची उसी रंग की रहती है। और चित्र रूप वाली वस्तु में कोई भी एक रंग समूची वस्तु में नहीं रहता।

और गुणों की तरह रूप भी नित्य द्रव्य में नित्य और अनित्य द्रव्य में अनित्य रहता है। ऐसा सूत्र ७।१।२-३ में कहा है। पर सूत्र ४ में कहा है कि नित्य जल, अग्नि, परमाणु का रूप नित्य है। परन्तु नित्य पृथ्वी परमाणु का भी रूप अनित्य होता है—ऐसा सूत्र ६ में कहा है। इस का कारण यह है कि पार्थिव जितनी वस्तुएं हैं उनका रंग अग्नि संयोग से बदलता है। इसी से पृथ्वी का रूप "पाकज" कहलाता है। घट का दृष्टान्त ले कर तो यह समझना सहज है। क्यों कि कच्चा घट काला रहता है और पकाने पर लाल हो जाता है। परन्तु पृथ्वी मात्र के रूप को पाकज मानना उतना