पृष्ठ:वैशेषिक दर्शन.djvu/४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
ग्रन्थपरिचय।

भाष्य बहुत बड़ा ग्रन्थ है। इस पर पद्मनाभ मिश्र टीकाकार ने लिखा है कि 'यह भाष्य रावण का किया है'। इस रावण कृत भाष्य की चर्चा वेदान्त भाग्य की रत्नप्रभा टीका में भी पाई जाती है। फिर भाष्य के लक्षण भी इस ग्रन्थ में नहीं पाए जाते। सूत्रों के अनुसार जिस में सूत्र पदों का अर्थ हो उसी को भाष्य कहते हैं। प्रशस्तपाद भाष्य की भूमिका में जिस तरह यह लक्षण इस ग्रंथ में लगाया गया सो मन में नहीं बैठता। फिर जब एक बड़ा 'भाष्य' दूसरा है–ऐसा किरणावली ऐसे प्राचीन ग्रंथ के लेख से स्पष्ट मालूम होता है–तब इस ग्रन्थ को भाष्य कहने का आग्रह ही क्यों? भाष्य ही होने से ग्रंथ प्राचीन नहीं होता। बिना भाष्य हुए भी यह ग्रंथ भाष्यों से प्राचीन हो सकता है। परन्तु वर्धमान उपाध्याय न्यायनिबन्धप्रकाश में–'सूत्रं बुद्धिस्थीकृत्य तत्पाठनियमं'–बिना तद‍्न्याख्यानं भाष्यम्–ऐसा लक्षण करके प्रशस्त-पाद के ग्रंथ को 'भाष्य' बतलाया है।

प्रशस्तपाद के ग्रंथ पर किरणावली और न्यायकंदली दो टीकायें प्रसिद्ध हैं। सूत्रों पर टीका, शंकर मिश्र का उपस्कार आज कल उपलब्ध है। सूत्रों पर इस से प्राचीन कोई टीका अभी नहीं मिली है। सूत्रों पर एक वृत्ति भारद्वाज मुनि की की हुई है। सम्भव है यह 'भारद्वाज' न्यायवार्तिककार उद्योतकर ही हों। यह वृत्ति प्रायः प्रशस्तपाद के भाष्य से अधिक प्राचीन है। पर इस की पोथियां नहीं मिलतीं। एक आध प्रति बनारस में है।

प्रकरणग्रंथ इस दर्शन के अनेक हैं। सप्तपदार्थी तर्कसंग्रह तर्कामृत-चपक-तर्ककौमुदी-मुक्तावली-इत्यादि।

वैशेषिकों का परमाणुवाद-परमाणु से सृष्टि होती है सो मत– और शब्द अनित्य है–यह मत मीमांसक और वेदान्तियों को नास्तिकता से मालूम पड़े। इस से वैशेषिकों को कुमारिल ने बौद्धों के समान नास्तिक (अर्थात् वेदनिन्दक) बतलाया है और शंकराचार्य ने इन को 'अर्धवैनाशिक'–आधा बौद्ध–कहा है। परन्तु प्रशस्तपाद ने ग्रन्थ के आरम्भ में महादेव को नमस्कार किया है–और 'महेश्वर की इच्छा से सृष्टि होती है' यह स्पष्ट लिखा है। इस से इन को नास्तिक कहना ठीक नहीं मालूम होता।