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वैशेषिक दर्शन।


गौतम ने न्याय सूत्रों में दो वादी प्रतिवादी के बीच शास्त्रार्थ रूप से अपने शास्त्र को रचा है—उसी के अनुकूल उन्होंने अपने सोलह पदार्थों का निरूपण किया है। इसीसे न्याय सूत्रों में फजूल बातों का विचार घुसेड़ दिया है ऐसा लोग आक्षेप करते हैं। वैशेषिक सूत्रों में यह बात नहीं है। इस में आरम्भ ही से मोक्ष कैसे होता है इसी का विचार किया है।

कणाद ने पहिले सूत्र में प्रतिज्ञा की है कि मैं 'धर्म की व्याख्या करता हूं' अर्थात् धर्म क्या वस्तु है सो समझाऊंगा। धर्म का विचार आवश्यक है क्योंकि बिना धर्म के पदार्थों का ज्ञान नहीं हो सकता। दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण कहा है—'जिस से पदार्थों का तत्त्वज्ञान होने पर मोक्ष होता है वही धर्म है'। अर्थात् धर्म से पदाथों का ज्ञान होता है और तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है। यह धर्म कौन सी वस्तु है जिससे तत्त्वज्ञान होता है? काम्य कर्मों से निवृत्ति और नित्य कर्मों का अनुष्ठान—इत्यादि जो वेद में कहे हैं वही धर्म है।

वह कौन सा 'तत्वज्ञान' है जिस से मोक्ष होता है? चौथे सूत्र में कहा है कि द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, ये छओ पदार्थ क्या हैं—इन का क्या लक्षण है—कौन से लक्षण किन किन पदार्थों में हैं—इन में से किन में क्या साधर्म्य है क्या वैधर्म्य है—इत्यादि के ज्ञान को 'तत्वज्ञान' कहते हैं। और इसी तत्वज्ञान से निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष होता है।

यहां पदार्थ छही कहे हैं। प्राचीन वैशेषिक ग्रन्थों में ये ही छ हैं। सप्त पदार्थों में पहिले सातवां पदार्थ 'अभाव' माना है।

ये द्रव्यादि पदार्थ कौन से हैं, इनके लक्षण—साधर्म्य वैधर्म्य, क्या हैं इत्यादि विचार पांचवें सूत्र से लेकर अन्त तक किया है।

द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय येही पदार्थ सूत्र (१.१.४) में कहे हैं। प्रशस्तपाद ने भी येही छ पदार्थ कहे हैं। 'पदार्थ' उसको कहते हैं जिसका ज्ञान हो सके। इससे जितनी चीजें संसार में हैं सभी 'पदार्थ' कहलाती हैं। वे कुल चीजें इन्हीं छओं के अन्तर्गत हैं। इन छओं से बाहर कोई भी चीज नहीं हो सकती। ये छ 'भाव' पदार्थ हैं और हर एक वस्तु अपने विपरीत को सूचित