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प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व।

शरीर से सम्बद्ध होता है। इसी को 'उपसर्पण' कहते हैं।

चौथा पदार्थ सामान्य

'सामान्य' जाति को कहते हैं। जिसके द्वारा अनेक वस्तु एक समझी जाती हैं। जैसे दश मनुष्य एक इसीसे समझे जाते हैं कि वे मनुष्य हैं, इससे 'मनुष्यत्व' एक जाति हुई।

जाति दो तरह की है—अपर अर्थात् छोटी। और पर अर्थात् बड़ी। 'मनुष्यत्व' जाति पर हुई 'ब्राह्मणत्व' जाति की अपेक्षा, और अपर हुई 'जीवत्व' जाति की अपेक्षा। 'सत्ता' जाति एक ऐसी है जिससे 'पर' और कोई जाति नहीं है। और 'सत्ता' जाति के द्वारा केवल कई वस्तु एक समझी जासकती है, इसके द्वारा कोई वस्तु किसी वस्तु से भिन्न नहीं समझी जाती। जैसे 'ब्राह्मणत्व' जाति के द्वारा ब्राह्मण लोग और मनुष्यों से अलग समझें जाते हैं।

द्रव्य, गुण, कर्म इन्हीं तीन पदार्थों में जाति होती है।

कई वस्तुओं में किसी एक गुण के होने ही से उस गुण के द्वारा उन वस्तुओं की एक जाति नहीं मानी जाती। और अगर कोई वस्तु एक ही है तो उस की जाति नहीं मानी जाती। फिर पृथक् पृथक् जाति ऐसी ही मानी जा सकतीं जिनमें परस्पर हेर फेर या मिल जाने का सन्देह न रहे। जैसे 'भूर्तत्व' और 'मूर्तत्व' दो जाति नहीं है क्योंकि आकाश में भूतत्व है पर मूर्तत्व नहीं, मन में भूर्तत्व है भूतत्व नहीं पर पथिवी जल वायु में दोनों है। इससे ये दोनों एक दम पृथक् नहीं मानी गई हैं।

ऐसे ऐसे गुण जो की वस्तुओं में हों पर जिनके द्वारा स्वतन्त्र जाति नहीं कल्पित की जाती, ये 'उपाधि' कहलाते हैं।

जाति नित्य है परस्पर भिन्न है। एक है।

पांचवां पदार्थ विशेष।

'सामान्य' का विरोधी विशेष है। जैसे दस चीजों को एक मानने का कारण सामान्य होता है वैसेही जिसके द्वारा कोई वस्तु और सब वस्तुओं से अलग मानी जाय उसको 'विशेष' कहते हैं। परन्तु गुण बहुत से ऐसे ही हैं कि यद्यपि कई चीज़ों से कुछ