करती है। इस से इन पदार्थों के विपरीत एक पदार्थ 'अभाव' नवीन वैशेषिकों ने मान लिया है। जितनी चीजों का ज्ञान होता है वे क्या भावरूप हैं या अभावरूप। भावरूप जितनी हैं वे क्या द्रव्य हैं वा गुण वा कर्म वा सामान्य वा विशेष वा समवाय। पदार्थों के साधर्म्य वैधर्म्य ज्ञान से यह मतलब है कि इसी तरह कुल पदार्थों के यथार्थ लक्षण का ज्ञान हो सकता है। कौन कौन गुण किन किन पदार्थों में है इस के जानने ही से पदार्थों का तत्वज्ञान होता है। इसी से प्रशस्तपाद भाष्य से लेकर मुक्तावली पर्यन्त सब वैशेषिक ग्रन्थों में पहिले पदार्थों के साधर्म्य का विचार कर के फिर वैधर्म्य का विचार किया है। वैधर्म्य के विचार ही से एक एक कर सब पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है।
अब इन पदार्थों के परस्पर साधर्म्य वैधर्म्य का विचार करना आवश्यक है। पहिले साधर्म्य का विचार किया गया है, अर्थात् कौन कौन सी चीजें एक तरह की समझी जा सकती हैं। इसके बाद इन सभों के वैधर्म्य का विचार होगा; अर्थात् एक एक करके इन के क्या लक्षण हैं, क्या स्वभाव हैं, इत्यादि बातों पर विचार होगा।
छओं पदार्थों का साधर्म्य यही है कि ये सब वर्तमान हैं-शब्दों से कहे जा सकते हैं और इनका ज्ञान हो सकता है।
नित्य द्रव्यों को छोड़ कर और जितनी चीजें हैं उन सभों का यह साधर्म्य है कि वे आश्रित हैं, अर्थात् किसी आधार पर रहती हैं।
द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष-इन पांचों का यही साधर्म्य है कि ये अनेक हैं और द्रव्यों के साथ इनका नित्य सम्बन्ध रहता है।
गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय, इन पाँचों का साधर्म्य है कि इन के कोई गुण या कर्म नहीं हैं।
द्रव्य, गुण, कर्म, इन तीनों का साधर्म्य है कि इन में सत्ता रहती है-इन के सामान्य (जातियाँ) होती हैं, इन के विशेष भी होते हैं और धर्म अधर्म के कारण होते हैं।
सभी रहती हैं इस का यह तात्पर्य नहीं है कि ये वर्तमान हैं, तात्पर्य यह है कि 'सत्ता' इन में जाति रहती है अर्थात् 'सत्ता' जो एक जाति है उस में द्रव्य, गुण, कर्म अन्तर्गत हैं। और पदार्थ यद्यपि