पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

वोल्गासै गंगा पथिकने स्वर्ण-केशोंपर कुमारियोंकी सला, शरीरपर उत्तरासंग (चादर ), कचुक और अन्तरवासक ( लुङ्गी ) के साधारण, किन्तु विनीत देशको देखा । धूपमें चलनेके कारण तरुणका मुख अधिक लाल हो गया था, और ललाट तथा ऊपरी ओठपर कितने ही अम-बिन्दु झलक रहे थे । कुमारीने थोड़ी देर उस अपरिचित पुरुषकी ओर निहारकर माद्रियोंकी सहज भुस्कराहटको अपने सुन्दर ओठोंपर ली तरुणी आधी भ्यासको बुझाते हुए मधुर स्वरमें कहा-मैं समझती हूँ, त प्यास है भ्रातर ! पथिकने साहसपूर्वक अपने गिरते कलेजेको दृढ़ करनेमें असफल होते हुए कहा--"हाँ, मैं बहुत प्यासा हूँ । 'तो मैं पानी लाती हूँ। तरुणीने बाल्टीमें पानी भरा । तब तक तरुण भी उसके पास आकर खड़ा हो गया था। उसका दीर्घ गात्र और मौटी हड्डियाँ बतला रही थीं कि अभी उनके भीतरसे असाधारण पौरुष लुप्त नहीं हुआ है। मशकसे लटकते चमड़ेके गिलासको पथिककै हाथमें दें तरुणीने उसमें बाल्टीसे पानी भर दिया। पथिकने बड़ी पँट भरी और गलेसे उतारनेके बाद नीचे मुँहकर बैठ गया। फिर एक साँसमें गिलास पानीको पी गया । • गिलास उसके हाथसे छूट गया और सँभालते-सँभालते भी वह पीछेकी ओर गिर पड़ा। तरुणी जरा देरके लिए अवाक् रह गई । फिर देखा, तरुणकी अखें उलट गई हैं, वह बेहोश हो गया है। तरुणीने झटसे अपने सिरसे बंधे रुमालको पानी में डुबा तरुणके मुख और ललाटको पोंछना शुरू किया। कुछ क्षणमैं उसने अखें खोली, फिर तरुण कुछ लज्जित-सा हो क्षीण-श्वरमें बोला---'मुझे अफसोस है कुमारि मैंने तुझे कष्ट दिया । 'मुझे कष्ट नही है; पर मैं तो डर गई थी कि ऐसा क्यों हुआ है। "कोई बात नहीं, खाली पेट था, प्यासमें बहुत पानी पी गया । किन्तु अब कोई हर्ज नहीं है।