पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१०२

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सुदास्। 'खाली पेट ??—कह पथिंकको बोलनेका कुछ भी अवसर दिए विना तरुणी वाँसे दौड़ गई और थोड़ी देरमें एक कटोरेमें दही, सत्तू और मधु लेकर आ उपस्थित हुई । तरुणके चेहरेपर संकोच और लजाकी रेखा फिरी देखकर कुमारीनें कहा- संकोच न कर पर्थिक ! मेरा भी एक भाई कई साल हुए घरसे निकल गया है। यह थोड़ी-सी देरी सहायता करते वक्त मुझे अपना भाई याद आ रहा है।' पथिकने कटोरेको ले चिया | तरुणीने बालीसे जल दिया । तरुण सत्तू घोलकर धीरे-धीरे पी गया । पीनेके बाद उसके चेहरे की आधी मुरझाइट जाती रही और अपने संयत मुखकी मूक मुद्रासे कृतज्ञता प्रकट करते हुए वई कुछ बोलनेकी सोच ही रहा था कि तरुणीने मानो उसके भावको समझकर कहा–संकोच करने की जरूरत नहीं भातर ! दूरसे आया मालूम होता है ? "हाँ, बहुत दूर पूरबसे--पंचालसे । 'कहाँ जायगा । *यहाँ, वहाँ, कहीं भी। "तो भी । अभी तो कोई काम चाहता हैं, जिसमें अपने तन और कपड़ोंकी व्यवस्था कर सकें। 'खेतों में काम करेगा है। "क्यों नहीं ? मैं खेत काट-थो-जीत सकता हूँ। खलिहानका काम कर सकता हूँ । घोड़े-गायकी चरवाही कर सकता हूँ। मेरै शरीरमें चल है; अभी सूख गया है ; किन्तु थोड़े ही समय मैं भारी बलके कामको भी करने लगा। कुमारि ! मैंने कभी अपने किसी मालिकको नारा नहीं किया। | तो मैं समझती हैं, पिता तुझे कामपर रख लेंगे । पानी भरती हूँ, मेरे साथ चलना । तरणने मशक ले चलनेकी बहुत कोशिश की; किन्तु तरुणी राज्ञी