पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१०३

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१०२ बौलासे गंगा न हुई । खेतमें एक लाल तम्बू लगा था, जिसके बाहर चालीसके करीब स्त्री-पुरुष बैठे थे। तरुण पहचान नहीं सकता था कि इनमें कौन तरुणीका पिता है। सबके एक-से सादे वस्त्र, एक-से पोलै केश, गोरा शरीर, अदीन मुख । तरुणीने मशक और बाल्टीकोउतार बीचमें बिछे चमड़ेपर रखा, फिर साठ वर्षकै एक बूढ़े किन्तु स्वस्थ बलिष्ट आदमीके पास जाकर कहा-'यह परदेसी तरुण काम करना चाहता है, पितर !! खेतों में दुहितर है। हां, कहीं भी 'तो यहाँ काम करें । वेतन जो यहाँ दूसरे पुरुषो को मिलेगा, वही इसे भी मिल जायेगा। | तरुण सुन रहा था। वृद्धने यही बात उसके सामने दुहराईं, जिसे उसने स्वीकार किया । फिर वृद्धने कहा- तरुण 1 भी आ जा । हम सब मध्याह-भोजन कर रहे हैं। अभी मैने सत्त पिया है, तेरी दुहितार्ने दिया था, आर्य ! 'आर्य-वार्य नहीं, मैं जेता ऋभु-पुत्र माद्र हूँ। तु जो कुछ भी खा-पी सके, खा-पी ! अपाला ! मेरय ( कच्ची शराब ) देना, अश्विनीक्षीरका । धूपमें अच्छा होता है तरुण ! बात शामको करूंगा, इस वक्त नाम-भर जानना चाहता हूँ।' 'सुदास् पांचाल ।' सुदास् नहीं, सुदा—सुन्दर दान देनेवाला । तुम पूरबवाले भाषा भी ठीकसे बोलना नहीं जानते १ पंचाल जनप्रदसै १ अच्छा, अपाले ! यह पूरबवाले लज्जालु होते हैं। इसे खिलाना, जिसमें शाम तक कुछ काम करने लायक हो जाय ।। सुदासूने पालाकै आग्रहपर मेरयके दो-तीन प्याले पिए और एकाध टुकड़ा रोटीको गलेसे नीचे उतारा । दो दिनसे भूखे रहने कारण उसकी भूखे मर-सी गई थी। जैसे-जैसे सूर्यकी चण्डता मन्द होती जा रही थी, वैसे ही वैसे