पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१०६

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| सुदास् १०५ मुझे खुशी है पुत्र ! तूने बुरा नहीं माना। अपनी-अपनी जनभूमिका सबको प्रेम होता है । 'किन्तु प्रेमका अर्थ-दोषोंसे आँख मचना नहीं होना चाहिए । | मैले कुरु-पंचालकी यात्रा करते वक्त बहुत बार सोचा, यहसि भी पैडितसे चर्चा की। मुझे इस दोषके आनेका कारण तो मालूम हुआ। किन्तु प्रतिकार नहीं । क्या कारण आर्यवृद्ध १ , 'यद्यपि पंचाल जन-पद पंचालोंको कहा जाता है; किन्तु उसके निवासियमैं आधे भी पंचाल-जन नहीं हैं ।। हाँ, आगन्तुक बहुत हैं । ‘आगन्तुक नहीं पुत्र ! मूलनिवासी बहुत हैं । वहाँकी शिल्पी जातियाँ, वहाँकै व्यापारी, वहाँकै दास पंचाल-जनके उस भूमिपर पग रखनेसे बहुत पहलेसे मौजूद थे । उनका रंग देखा है न ! 'हाँ, पंचाल-जनोंसे बिल्कुल भिन्न काला, साँवला या ताम्रवर्ण । और पंचाल-जनोंका वर्ण मद्रों-जैसा गौर होता है ।। 'हाँ बहुत-कुछ ही, क्योंकि दूसरे वर्णवालोंके साथ मिश्रण होनेसै दर्य ( रंग } में विकार होता ही है। मैं समझता हूँ, यदि मद्रकी भाँति वहाँ भी आर्य- पिंगल-केश---ही बसते, तो शायद मानव वहाँ भी दिखलाई पड़ते । आर्य और आर्य-भिन्नोंके ऊँच-नीच भावनें तो भिन्न वर्ण होना कारण हो सकता है। और शायद आर्यवृद्ध ! तुझको मालूम होगा कि इन आर्य-भिन्नजिन्हें पूर्वज असुर कहते थे--में पहले ही से ऊँच-नीच और दासस्वामी होते आते थे ।।। “हाँ, किन्तु पंचाल तो आर्य जन थे एक खून एक शरीरसै उत्पन्न । फिर वहाँ उनमें भी ऊँच-नीचको भाव वैसा ही पाया जाता है। पंचाल-राज दिवोदासूनै मेरे कुछ घोड़े खरीदे थे, इसके लिए एक