पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/१०७

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योगासे गंगा दिन मैं उसके सामने गया था। उसका पुष्ट गौर तरुण शरीर सुन्दर था; किन्तु उसके सिरपर लाल-पीली भारी-भरकम हुलिया ( मुकुट) ‘फटे कान में बड़े-बड़े छल्ले, हायों और गलेमें भी क्या-क्या तमाशे थे। यह सब देखकर मुझे उसपर दया आने लगी । जान पड़ा, चन्द्रमाको राहु ग्रस रहा है। उसके साथ उसकी सी भी थी, जो रूपमें भद्रसुन्दरियोंसे कम न थी; किन्तु इन लाल-पीलै बोझसे बेचारी की जा रही थी। सुदासूका हृदय वैगसे चलने लगा था। उसने अपने भावोंसे चेहरे को न प्रभावित होने देनेके लिए पूरा प्रयत्न किया; किन्तु असफल होते देख बातको बदलनेकी इच्छासे कहा-पंचाल-राजने घोड़ोंको लिया ने आर्यवृद्ध । | 'लिया और अच्छा दाम भी दिया। याद नहीं, कितने हिरण्य; किन्तु वह यह देखकर ज्वर आ रहा था कि पंचाल-जन भी उसके -सामने घुटने टेककर वन्दना करते, गिड़गिड़ाते हैं। मर जानेपर भी कोई मद्र ऐसा नहीं कर सकता, पुत्र । । 'तुझे तो ऐसा नहीं करना पड़ा आर्यवृद्ध है। मैं तो लड़ पड़ता, यदि मुझे ऐसा करनेको कहा जाता। पूरबवाले राजा हमें वैसा करनेकों नहीं कहते । यह सनातनसे चला आया है। क्यों ? 'क्यों पूछता है पुत्र ! इसकी बड़ी कानी है । जब पश्चिमसे आगे बढ़ते-बढ़ते पंचाय-जन यमुना, गंगा, हिमवान्के बीच ( उत्तर-दक्षिणके पंचालों ) की इस भूमिमें गए, तो वह बिल्कुल मद्रोंकी ही भाँति एक परिवार--एक बिरादरी की तरह रहते थे। असुरोंसे संसर्ग बढ़ा, उनकी देखादेखी इन आर्य-पंचालोमें से कुछ सदर राजा और पुरोहित बननेके लिए लालायित होने लगे। ‘लालायित क्यों होने लगे हैं। 'लोभके लिए, बिना परिश्रमके दुसरेकी कमाई खाने के लिए।