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वोल्गा से गंगा


माने चाकू पुरुष के हाथ मे दे दिया। उसने झुककर चौबीस वर्ष के तरुण के मुँह को चूमा, फिर उसका हाथ पकड़कर बाहर चली गई।

उन्होंने तीनों भालुओं की कलेजो को खाया। चार मास के निराहार सोये, भालुओं में चर्बी कहाँ से रहेगी, हाँ बच्चे भालू का मास कुछ अधिक नरम और सुस्वादु था, जिसमें से भी कितना ही उन्होंने खा डाला। फिर थोड़ी देर विश्राम करने के लिए सभी पास-पास लेट गये।

अब उन्हें घर लौटना था। नर-मादा भालु को दो-दो आदमियों ने चमड़े की रस्सी से चारों पैरों को बाध डंडे के सहारे कंधे पर उठाया और छोटे भालु को एक तरुणी ने। मा अपना पाषाण-परशु सँभाले आगे-आगे चल रही थी।

उन जागल मानव को दिन के घड़ी-घन्टे का पता तो था नही, किन्तु वै यह जानते थे कि आज चाँदनी रात रहेगी। थोड़ा ही चलने के बाद सूर्य क्षितिज के नीचे चला गया जान पड़ता था कि वह गहराई में नहीं गया है, इसीलिए सध्या-राग घंटों बना रहा, और जब वह मिटा तब धरती, अवर सर्वत्र श्वेतिमा का राज हो गया।

अभी घर-गुहा दूर थी, जबकि खुली जगह में एक जगह मा एकाएक खड़ी हो कान लगाकर कुछ सुनने लगी। सब लोग चुपचाप खड़े हो गये। षोडशी ने छब्बी से तरुण के पास जाकर कहा-“गुर, गुरं वृक, वृक (भेड़िया)"। माने भी ऊपर-नीचे सिर हिलाते हुए कहा—“गुर, गुरं , वृक वृक।” फिर उत्तेजनापूर्ण स्वर में कहा —"तैयार"।

शिकार ज़मीनपर रख दिया गया और सब अपने-अपने हथियारो को सँभाले एक दूसरे से पीठे सटाकर चारो ओर मुंह किये खड़े हो गये। बात हीं बात में सात-आठ भेड़ियों के झुंडकी लपलपाती जीभे दिखलाई देने लगीं, और वे गुराँते हुए पास आ उनके चारों ओर चक्कर काटने लगे। मानवों के हाथ में लकड़ी के भाले और पाषाण-परशु देख वे हमला करने मे हिचकिचा रहे थे। इसी समय लड़के ने जो धेरेके बीच